अमृत वाणी (भाग-३)
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मुमुक्षुः- वह उपयोग ही वैसा है कि उतनी देर ही रहता है। समाधानः- बस, वह उपयोग अंतर्मुहूर्तकी स्थिति रहती है, फिर बाहर आते हैं। फिर पलट जाता है। बाहर आकर भेदज्ञानकी धाराका पुरुषार्थ चालू ही रहता है। विकल्प आये तो स्वयं भिन्न ही रहता है। ऐसी धारा उसकी चालू ही रहती है। फिर एकत्व नहीं होता है। ज्ञाताधाराकी परिणति चालू ही रहती है। भिन्न ही रहता है।
प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!