मुमुक्षुः- सम्यग्दृष्टि महात्माओंको ख्यालमें ही होता है कि मिथ्यात्वके कौनसे सूक्ष्म शल्य सर्व प्रथम निकाले थे। ऐसे सूक्ष्म शल्य जो सामान्यतः अज्ञानीको ख्यालमें भी न आवे, वांचन करने पर भी ख्यालमें न आवे, श्रवण करने पर भी ख्यालमें न आवे, ऐसे मिथ्यात्वके सूक्ष्म शल्य कौनसे हैं? बडे शल्यमें तो बाहर पडनेका भाव हो या मान कषाय हो, वह तो ख्यालमें आ जाता है। परन्तु सक्ष्म प्रकारके...
समाधानः- शल्य अनेक प्रकारके होते हैं। कहीं न कहीं अटकता है। और कषायके, अनन्तानुबन्धि कषायका, क्रोधका, मानका, मायाका, लोभका इत्यादि अनेक प्रकारमें अटकता है। परन्तु एक आत्माका प्रयोजन हो, प्रत्येक कार्यमें आत्माका प्रयोजन रखे तो उसमें शल्यसे छूट जाता है। प्रत्येक कार्यके अन्दर मुझे आत्मार्थका पोषण हो, मुझे आत्मा कैसे प्राप्त, ऐसा उसका ध्येय हो तो उसमेंसे सब शल्य निकल जाते हैं।
अनेक प्रकारके शल्य होते हैं। उसका क्या दृष्टान्त दें। अनेक जातमें अटकता है। कुछ तत्त्वकी भूल होती हो, अनेक जातमें रुकता है। देव-गुरु-शास्त्र क्या कहतें है उसकी समझमें भूल होती हो। अनेक जातकी भूल करता है। लौकिक प्रयोजन, लौकिक रस रह जाता हो, अनेक जातका (होता है)। शुभभावोंके गहराईमें रुचि रहती हो, अनेक जातका होता है। परन्तु प्रयोजन एक आत्मार्थका रखे तो उसे सब अलग- अलग शल्य छोडने नहीं पडते। भिन्न-भिन्न नहीं छोडने पडते। एक आत्मार्थका प्रयोजन हो तो उसमें सब शल्य निकल जाते हैं। अमुक कषाय होते हैं, परन्तु आत्मार्थीको मन्द कषाय होते हैं। लेकिन उसे प्रयोजन एक आत्मार्थका होना चाहिये।
मुमुक्षुः- प्रयोजन सच्चा हो तो यह सब..
समाधानः- यह सब निकल जाता है। प्रयोजन (आत्मार्थका होना चाहिये)।
मुमुक्षुः- उसे खोजना नहीं पडता।
समाधानः- उसे खोजना नहीं पडता कि कहाँ-कहाँ अटकता हूँ। प्रयोजन एक आत्माका। मेरा प्रयोजन क्या है? प्रत्येक कार्यमें आत्मार्थका प्रयोजन होना चाहिये।
मुमुक्षुः- प्रयोजन ठीक रखे तो सब..
समाधानः- तो सब निकल जाता है, सब शल्य निकल जाय। कषायनी उपशांततमा