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आत्माका प्रयोजन हो, आत्माका करना हो तो आत्मार्थीको सब जाने देना, यह सीखना। मुझे ऐसा क्यों हो? मुझे ऐसा क्यों होता है? वह सब आग्रहकी बात छोड देनी। स्वयं अपना करनेके लिये सब जाने देना सीखना। कोई कषायमें, कोई मानमें, कहीं अटकना नहीं। सबमें जाने देना।
पूरे विभावको जाने देना है, सब विभावको टालनेके लिये खडा हुआ है, यदि आत्माको साधना है तो आत्मा तो विभाव रहित शुद्धात्मा है। तो उस शुद्धात्माको ग्रहण करना है, ऐसा आत्मार्थीको प्रयोजन है। विभाव टालना है, कोई विभाव रखने जैसा नहीं है। तो बाह्य संयोगके साथ, कोई परद्रव्यके साथ, उसमें तो प्रथम ही जाने देना ऐसा होता है। अन्दरसे विभाव ही टालने जैसा है। किसीने मुझे ऐसा कहा, किसीने मुझे ऐसा कहा, सब टालने जैसा है।
.. ज्ञान और वैराग्यकी ऐसी शक्ति होती है। दो-तीन कलश वही आते हैं। उस दिन दो तो आ गये हैं, तीसरा रह गया है। वह कलश मैं बहुत बार बोलती हूँ। "सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः' बहुत बार बोलती हूँ। सम्यग्दृष्टिज्ञको ज्ञान- वैराग्यकी ऐसी कोई अचिंत्य शक्ति है कि जिसे लेप नहीं लगता ऐसी है। सम्यग्दृष्टि अंतरसे ऐसे निर्लेप हो गये हैं। जिन्हें ज्ञान प्रगट हुआ और वैराग्य प्रगट हुआ। दोनों ऐसे अलग जातके प्रगट हुए हैं कि उन्हें लेप नहीं लगता। अंतरसे निर्लेप रहते हैं। अन्दरसे उनका आत्मा भिन्न हो गया है। जो अनादिकी एकत्वबुद्धि थी, उसका रस था,.. एकत्वरूप अनन्त रस अनन्तानुबन्धि कहलाता है, उससे भिन्न होकर अकेला ज्ञायक भिन्न हो गया, उसका रस टूट गया। उसका वैराग्य भी अलग जातका है। वह स्वयंको ग्रहण करते हैं और परका त्याग करते हैं। ग्रहण और त्यागकी ऐसी विधि उन्हें प्रगट हुयी है। उसका अभ्यास ऐसा करते हैं कि, स्वयं अपनेमें टिकते हैं और अन्य सर्वसे सर्व प्रकारसे विरक्त होते हैं। अर्थात दृष्टि अपेक्षासे विरक्त हो गये हैं। अभी अस्थिरता तो उन्हें बाकी है। दृष्टि अपेक्षासे विरक्त हो गये हैं। दृष्टि अपेक्षासे सर्व प्रकारसे विरक्त हो गया है। ज्ञायकको ग्रहण किया सो किया, विभावकी दिशा (बदलकर), उसकी पूरी दृष्टि स्वभावकी दिशाकी ओर (चल रही है), उसकी परिणति स्वभावकी ओर चली गयी है। अल्प अस्थिरता है उसे गौण कर दी है, उसे निर्जरा है। सर्व प्रकारसे निर्लेप है। अल्प लेप लगता है, वह गौण है। वह उन्हें छूट जायगा।
जैसे वृक्षका मूल कट जानेके बाद वृक्ष पनपेगा नहीं। वैसे उन्हें मूलमेंसे ज्ञायककी दशा कोई अलग प्रगट हुयी है। सर्व प्रकारसे, चक्रवर्तीके राजमें बैठे हो तो भी वह खाते, पीते, सोते, स्वप्नमें सर्व प्रकारसे निर्लेप है। खाते वक्त निर्लेप, चलते हुए निर्लेप, लडाईमें निर्लेप, सर्व प्रकारसे निर्लेप रहते हैं। क्षण-क्षणमें उन्हें निर्लेप दशा वर्तती है।