समाधानः- ... मैं चैतन्य हूँ, बाहरमें इष्ट-अनिष्ट कुछ भी नहीं है, ऐसी प्रतीति दृढ (हो गयी है)। ज्ञायकको ग्रहण किया, ज्ञायककी परिणति प्रगट हो गई। प्रतीतमेंसे छूट गया है, भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। अस्थिरतामें अल्प विभाव है, लेकिन वह बाह्य वस्तु इष्ट है और बाह्य वस्तु अनिष्ट है, ऐसा उसे नहीं है। अन्दर विभाव परिणति स्वयंकी है, पुरुषार्थकी मन्दतासे होती है। उसमें जो होता है, विभाव होता है उस विभावकी परिणतिके कारण, मन्दताके कारण रुकता हूँ। बाकी बाहरमें उसे इष्ट-अनिष्टपना उसे है ही नहीं। चतुर्थ गुणस्थानमें।
मुमुक्षुः- श्रद्धा अपेक्षासे निकल गया।
समाधानः- हाँ, श्रद्धा अपेक्षासे निकल गया है। अस्थिरतामें है।
मुमुक्षुः- बाह्य दृष्टिसे देखें तो बहुत ही संयोग दिखाई देते हैं।
समाधानः- दिखाई देते हैं, परन्तु उसे प्रतीतमें नहीं है, अंतरसे छूट गया है। एकत्वबुद्धि नहीं है, तन्मयता नहीं है। मैं ज्ञायक हूँ, मुझे कोई कुछ नहीं कर सकता। बाह्य वस्तु या अन्य कुछ मेरा बिगाडता नहीं और कोई सुधारता नहीं। मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे राग-द्वेषसे उसमें जुडना होता है, वह मेरी स्वयंकी भूलके कारण मैं रखडा और मेरे ही कारण, पुरुषार्थकी मन्दतासे इसमें जुडता हूँ। बाकी मेरा इष्ट-अनिष्ट कोई नहीं है। मैं स्वयं ही इष्ट हूँ। मेरे चैतन्यमें कोई प्रवेश नहीं कर सकता। मेरा कोई बिगाड-सुधार नहीं कर सकता। मैं स्वयं ज्ञायक स्वतःसिद्ध अनादिअनन्त हूँ, उसमें किसीका प्रवेश नहीं है। व्यवहारमें अस्थिरताके कारण वैसा दिखाई देता है। कोई भाषा बोले तो अंतरमें उसे एकत्वबुद्धिकी परिणति या श्रद्धाकी परिणति नहीं है, अल्प अस्थिरता है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- स्वयं अपनी परिणतिको समझे। उसके परिचय वाले हो वह पकड सकते हैं। जिसकी वैसी देखनेकी दृष्टि हो, किसीका अंतरंग देख सके ऐसी जिसकी दृष्टि हो वह देख सकता है। सच्चा आत्मार्थी, कोई मुमुक्षु हो तो वह देख सकता है। उसके परिचित। वैसी देखनेकी जिसकी शक्ति हो, वह देख सकता है। बाकी उसके