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समाधानः- .. सम्यग्दर्शनपूर्वक ज्ञान और सम्यग्दर्शनपूर्वकका चारित्र वह सत्य है, वह सत्य चारित्र है।
.. राग-द्वेष टालनेका एक व्यवहारका प्रकार है। यथार्थमें तो अंतरमेंसे टालना है। वह तो विभाव है।
.. प्राप्त करना वही भवके अभावका उपाय है। ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी आराधना करना वह है। रत्नत्रय। आत्मा ज्ञानस्वरूप है, अनन्त गुणसे भरपूर है। दसलक्षण मुनिका आराधना पर्व है। मुनिके धर्म हैं। श्रावकोंको भी करने जैसा है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र रत्नत्रयकी आराधना करने जैसी है।
गुरुदेवने सम्यग्दर्शन कैसे प्राप्त हो, उसका उपाय बताया, वह करना है। बाकी बाहरका तो अनेक बार किया ही है। सब क्रियाएँ की, शुभ परिणाम (किये), पुण्य बन्धन (हुआ), परन्तु भेदज्ञान करके जो अंतरमेंसे रत्नत्रयकी प्राप्ति हो वही मोक्षका उपाय है। शरीक कहाँ अपना है, वेदना कहाँ आत्मामें है, आत्मा तो निराला चैतन्य तत्त्व है। उसमें कोई चीज प्रवेश नहीं कर सकती। रत्नत्रयकी आराधना करनी, वह करनेका है।
मुमुक्षुः- (आप तो) आराधना करके परिणमित हो गये हो, हमें...
समाधानः- सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र अलग है। सब मान रहे हैं व्यवहारका वह अलग है। वह सब तो विकल्परूप है। कितने तो क्रियामें मानते हैं, कोई शुभभावमें मानते हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्रका भेद पडा वह भी शुभभाव है, अन्दर रत्नत्रयकी आराधना करनी। ज्ञान आत्मामें (है), दर्शन आत्मामें (है)।
.. भेदज्ञान करना है। स्वयं भिन्न (है)। सब देखता है परन्तु उससे भिन्नताकी श्रद्धा करे कि मैं इससे भिन्न हूँ।
... शुद्ध स्वभावकी परिणतिरूप क्रिया, वह अंतरकी क्रिया अंतरमें है। चैतन्यस्वभाव पर दृष्टि करके अन्दर स्वभावरूप परिणति प्रगट हो, वह स्वभावक्रिया है। .. श्रद्धा भिन्न होनी चाहिये कि मैं भिन्न हूँ।
.. क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि श्रावकोंको भी करने जैसा है, सम्यग्दर्शनपूर्वक।