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समाधानः- ... गुरुकी जो वाणी आती है, ...
मुमुक्षुः- देशनालब्धि बगैर कोई भी सम्यकत्व नहीं पाता?
समाधानः- अनादिकालसे देशनालब्धिके बिना नहीं पाता। एक बार कोई गुरु, कोई देवकी प्रत्यक्ष वाणी मिलती है तब पाता है। अकेले शास्त्रसे नहीं होश्रता है। चैतन्यकी प्राप्ति, सामने चैतन्य होवे तो होती है। प्रगट स्वानुभूति जिसको होती है, वह जिसे चैतन्य (प्रगट हुआ) है, उसको चैतन्य प्रगट होता है, ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। .. उसको देशनालब्धि होती है। होता है अपनेसे, लेकिन निमित्त-उपादानका ऐसा सम्बन्ध होता है।
जिसको चैतन्य प्रगट हुआ है, उसके निमित्तसे चैतन्यकी प्राप्ति होती है। ऐसा उपादान- निमित्तका सम्बन्ध है। ... उसका स्पष्टीकरण, उसका रहस्य कौन जानता है? प्रत्यक्ष ज्ञानी जानता है। उसको स्वानुभूति हुयी है। उसके जो भीतरमेंसे अदभुतता प्रगट हुयी है, उसकी वाणी उसको बतानेवाली है। उसके निमित्तसे, चैतन्यके निमित्तसे चैतन्य (प्रगट) होता है। गुरुकी वाणी छूटती है तो देशनालब्धि होती है। भीतरमें प्रगट होती है। उसका सम्बन्ध है उपादान-निमित्तका।
समाधानः- ... कारणशुद्धपर्याय तो अनादिअनन्त है। वह पारिणामिकभाव अनादिअनन्त है, वैसे कारणपर्याय भी अनन्त है। जैसे द्रव्य शुद्ध है, गुण शुद्ध है, पर्याय भी अनादिअनन्त पारिणामिकभावकी वह पर्याय है, वह अनादिअनन्त है। कार्यपर्याय तो प्रगट होती है। पारिणामिकभाव पर दृष्टि करनेसे कार्यपर्याय प्रगट होती है। अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि करनेसे कार्यपर्याय होती है। अकेली कारणशुद्धपर्याय पर दृष्टि करनेसे होती है, ऐसा नहीं है। उसमें कारणपर्याय आ जाती है। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे कारणपर्याय उसमें आ जाती है। द्रव्य पर जो दृष्टि करता है, उसमें पारिणामिकभाव, ज्ञायकभाव, कारणशुद्धपर्याय सब उसमें आ जाता है।
जो ज्ञायकको ग्रहण करता है उसको। उसमेंसे कार्यपर्याय सधती है, इसलिये कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय (कहते हैं)। कारणपर्याय... वह अनादिअनन्त है, कारणशुद्धपर्याय अनादिअनन्त है। ऐसा द्रव्यका स्वभाव है। उस पर दृष्टि करनेसे कार्य-