३५८ चाहिये कि मैं अदभुत हूँ। उसकी अदभूतता लगे तो उसमें उपयोग जाय। चैतन्यकी महिमा करनी चाहिये कि मैं अदभूत तत्त्व हूँ। जगतमें सर्वोत्कृष्ट तत्त्व मैं ही हूँ। ऐसा बारंबार, बारंबार, बारंबार उसका अभ्यास करना, बारंबार दृढता (करनी)। उसकी भूख लगे तो बारंबार उस ओर परिणति गये बिना नहीं रहती।
मुमुक्षुः- विचार करते हैं उस समय तो थोडी शान्तिसी लगती है, फिर वह रहती नहीं।
समाधानः- पुरुषार्थकी कमी है, रुचिकी कमी है इसलिये। बारंबार करना।
मुमुक्षुः- मार्गकी प्रतीति तो है कि मार्ग बिलकूल सही है और यही एक प्रकारसे मुझे शान्ति होगी, ऐसा लगता तो है। परन्तु वह कायम नहीं रहता है।
समाधानः- उसका पुरुषार्थ कम है। जिसकी प्रतीति भीतरसे होवे कि इधर ही सुख है, इधर ही शान्ति है, यह मुझे प्रगट करना है। ऐसी यदि तीव्र जिज्ञासा होवे तो पुरुषार्थ उस ओर गये बिना रहता ही नहीं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब मेरेमेंसे ही होता है। ऐसी दृढ प्रतीति होवे तो परिणति उस (ओर जाय)। परन्तु उसकी दृढता नहीं है। बारंबार भेदज्ञानका अभ्यास करना। मैं चैतन्य हूँ, यह शरीर मैं नहीं हूँ। विकल्प विभावस्वभाव मेरा नहीं है। मैं निर्विकल्प तत्त्व हूँ। ऐसा बारंबार अभ्यास करना। ऐसी प्रतीति दृढ करना।
उसके पीछे पडे तो प्रगट हुए बिना रहता नहीं। जिसकी जरूरत लगती है बाहरमें, कोई वस्तुकी, व्यापारकी तो पीछे पडता है। तो इसकी-ज्ञायककी जरूरत लगे कि मुझे इसकी जरूरत है, तो उसके पीछे पडके भी उसका अभ्यास करना चाहिये। बारंबार ऐसा करना चाहिये, तो प्रगट होवे। ऐसे एक बार विचार कर लिया तो हो गया, ऐसे नहीं होता। बारंबार करना चाहिये।
मुमुक्षुः- बाहरमें अनुकूलतामें नहीं है इसलिये उसमें जुडना पडता है।
समाधानः- भीतरमें बारंबार करना चाहिये। बाहरके कार्य चैतन्यको रोकते नहीं। भीतरके परिणाम अपने हाथमें है। बारंबार दृढता करनी। बाहरके कार्य रोकते नहीं।
मुमुक्षुः- परिणाम अपने हाथमें है?
समाधानः- हाँ, परिणाम अपने हाथमें है। परिणामको कैसे पलटना, शुभाशुभ भाव, शुभ और अशुभ ऐसे परिणाम पलटते हैं, वैसे ज्ञायककी ओर भी पलटते हैं। पुरुषार्थ करना अपने हाथमें है। उसे कर्म कर नहीं देता है। अपना पुरुषार्थ अपने हाथमें है।
मुमुक्षुः- ... आत्मामें आनेकी क्या विधि है? कैसे आये?
समाधानः- शब्द बोलनेसे नहीं होता है। आत्माको जाननेकी विधि भीतरमें होती