१२६
है। जैसा गुरुने बताया, शास्त्रमें आया है, समयसार आदिमें आता है कि ज्ञायक स्वरूप आत्मा ज्ञाता है। यह सब भिन्न है, आत्माका स्वरूप नहीं है। विभावस्वभाव आत्माका नहीं है। उसका भेदज्ञान करो, तत्त्वका विचार करो, गहराईमें जाकर ज्ञानस्वभावको पहचाना। ऐसे माला जपनेसे, मात्र शुभभाव करनेसे नहीं होता है। भीतरमें भेदज्ञान करनेसे होता है। भीतरमें जिज्ञासा करके और भेदज्ञान करके स्वानुभूति करनेसे होता है।
दिन-रात उसकी जिज्ञासा, लगनी लगनी चाहिये। मैं आत्माको कैसे पहचानूँ? उसका विचार, उसका वांचन ऐसा बारंबार भेदज्ञान करनेसे होता है। शरीरको जानता है, बाहर जानता है, ऐसे जाननेसे आत्माका ज्ञान नहीं होता। आत्माको जाननेसे आत्माका ज्ञान होता है। मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, मैं आनन्दस्वरूप हूँ, मैं अनन्त गुणसे भरपूर हूँ, ऐसा बोलनेमात्रसे नहीं, ऐसा मात्र रटन करनेसे नहीं, मात्र ऐसे कल्पित ध्यान करनेसे नहीं, परन्तु भीतर उसका स्वभाव पहचाननेसे (होता है)।
गुडकी मीठास और शक्करका स्वाद (जानता है), ऐसे भीतरमें ऐसा स्वभाव जाननेसे होता है। मात्र बाह्य दृष्टिसे, बाहर जाननेसे नहीं होता है। भीतरको जाननेसे होता है।