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मुमुक्षुः- स्वाश्रित निश्चय और पराश्रित व्यवहार है, तो फिर निश्चय-व्यवहारको बराबर शास्त्रमें पूज्य कैसे कहा है? जबकि व्यवहार पराश्रित मार्ग है और निश्चय स्वाश्रित है, तो स्वाश्रित तो पूज्य है, तब पराश्रित मार्ग व्यवहारको भी साथमें पूज्य कहा है, तो किस अपेक्षासे?
समाधानः- पूज्य है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र रत्नत्रय प्रगट होते हैं, इसलिये। साधकदशा है, मोक्षका मार्ग है इसलिये पूजनिक कहनेमें आता है। द्रव्य तो पूजनिक है परन्तु व्यवहार भी मुक्तिके मार्गमें व्यवहार साथमें आता है।
आचार्यदेव कहते हैं, हम क्या करें? बीचमें आ जाता है। इसलिये व्यवहार आता है। परन्तु रत्नत्रय प्रगट होता है इसलिये उसको पूजनिक कहनेमें आता है। मुक्तिका मार्ग है। साधकदशा है, मुक्तिका अंश प्रगट होता है इसलिये। केवलज्ञान भी पर्याय है, .. कहनेमें आता है। उस अपेक्षासे। रत्नत्रय पूजनिक है।
अंतरमेंसे पर्याय... अपेक्षासे सब बात आती है। कोई अपेक्षासे कहे कि व्यवहार पूजनिक नहीं है, पर्याय अपेक्षासे पूजनिक कहनेमें आता है। क्योंकि रत्नत्रय है इसलिये। कोई अपेक्षासे ऐसा कहे कि... साधकदशा है इसलिये पूजनकि है, ऐसा भी आता है। मुनिको भी पूजनिक है। रत्नत्रय प्रगट हुआ है इसलिये। तो भी व्यवहार हेय कहनेमें आता है, तो भी साथमें आ जाता है। शुभभाव है, भेद आवे तो भेद पर दृष्टि मत कर। भेद पर दृष्टि मत कर, ऐसा कहनेमें आये। तो भी बीचमें ज्ञान, दर्शन, चारित्रका भेद तो आता है। वह आत्माकी शुद्ध पर्याय है...
मुमुक्षुः- एक जीवनसे द्वितीय जीवन धारण करना, इस प्रक्रियाको सहज शब्दोंमें यानी जैन टर्मिनोलोजी है, जिसे कहें जैन शब्दावलि, उसके बाहर छोटेमें हम लोग कैस तरहसे समझ और समझा सकते हैं?
समाधानः- उसमें तो क्या है? पुनर्जन्म है तो है। अनेक जातके जन्म लेता है दूसरे-दूसरे स्थान पर, तो पुनर्जन्म तो है। कोई राजाके घर जाता है, कोई रंकके घर जाता है, कोई जैनमें जन्म्ता है, कोई कहाँ जन्म्ता है। एक जन्ममेंसे दूसरे जन्ममें आता है तो पूर्वमें जो परिणाम किये हैं, उसका फल है। दूसरे-दूसरे जन्ममें आता