३६२ आत्माकी स्वानुभूतिका अनुभव होता है कि आत्माका स्वभाव है, आनन्द है, आत्माका भेदज्ञान क्या है? शरीर भिन्न है, विभाव भिन्न है, विभाव आत्माका स्वभाव नहीं है, आत्मा भिन्न है, उसकी स्वानुभूति होती है, उसका भेदज्ञान होता है। यह सब आत्माके हाथकी बात है। कर्म प्रकृति है वह दिखाई नहीं देती। वह तो केवलज्ञानीके ज्ञानमें प्रत्यक्ष ज्ञानीके ज्ञानमें, अवधिज्ञानमें, केवलज्ञानमें दिखाई देती है।
जिसने ऐसा स्वानुभूतिका मार्ग बताया, केवलज्ञानका मार्ग बताया, वह प्रत्यक्ष ज्ञानी जो कहते हैं, वह यथार्थ है। उसमें कोई फेरफार नहीं होता। ऐसा यथार्थ होता है। जगतमें प्रत्यक्ष ज्ञानी होते हैं, वीतरागी, जो स्वानुभूति होती है, स्वानुभूतिमें विशेष- विशेष लीन होते-होते मुनिदशा (आती है)। उसमें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूतिमें लीन होते हैं। ऐसा होते-होते केवलज्ञान प्रगट होता है। केवलज्ञान-प्रत्यक्ष ज्ञान एक समयमें लोकालोक जान लेता है। आत्माको जानता है और पुदगल एवं विश्वकी समस्त वस्तुओंको, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको वह जानते हैं। जानते हैं, उनके ज्ञानमें जो आता है, वही शास्त्रमें आता है।
जो आत्मा है, उसमें जो विभाव है तो कोई कर्म तो है। कर्म नहीं है, ऐसा नहीं है। आत्माका स्वभाव तो चैतन्य है, उसमें विभाव (होता है), वह आत्माका स्वभाव नहीं है। राग-द्वेष तो दुःखरूप है। दुःख आत्माका स्वभाव नहीं है। अतः कर्म है। वह कर्म अनेक जातिके होते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय (आदि)। ज्ञानको बन्ध करे, दर्शनको (बन्ध करे), ऐसे आयुष्यका बन्ध, ऐसे अनेक जातके कर्म होते हैं। उसमें अनेक जातकी रस, स्थिति होती है। उसमें अनेक-अनेक प्रकार होते हैं। वह सब प्रकार कैसे होते हैं, वह प्रत्यक्ष ज्ञानीके ज्ञानमें आता है।
सम्यग्दृष्टि और मुनिको तो स्वानुभूति होती है। सबको वह प्रत्यक्ष देखनेमें आवे ऐसा नहीं होती। उसकी स्वानुभूति प्रत्यक्ष देखनेमें आती है। स्वानुभूतिका वेदन होता है। कर्म देखनेमें नहीं आते। कर्म तो केवलज्ञानी और अवधिज्ञानीको दिखाई देते हैं। इसलिये प्रत्यक्ष ज्ञानीके ज्ञानमें जो आया वह यथार्थ है। अमुक बात युक्तिसे, दलीलसे सिद्ध होती है। स्वानुभूति, विभाव, उसका कर्मबन्ध, परद्रव्य है। दुःखरूप जो है वह परद्रव्य है, वह दुःखका निमित्त होता है। इसमें ज्ञानकी शक्ति.. मूल द्रव्य जो है उसका स्वभाव क्षय नहीं होता-घात नहीं होता, परन्तु उसकी शक्ति और पर्यायोंमें फेरफार होता है तो कर्मबन्ध (होता है)। ज्ञान, दर्शन, चारित्रको रोकता है। ऐसे आयुष्य, वेदनयी, गोत्र, नाम आदि अनेक प्रकारके कर्म होते हैं, उसमें एक आयुष्य बन्ध भी होता है।
जो आयुष्य केवलज्ञानीके ज्ञानमें आया है कि जीवनके तीसरे भागमें अमुक-अमुक