Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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है? कोई बीच-बीचमें हो भी जाय।

मुमुक्षुः- एक और प्रश्न है, बहिनश्री! पुनर्जन्मके सम्बन्धमें किसी व्यक्तिविशेषकी जानकारी या एकदम अपनेआप ज्ञान हो जाना, इसके लिये कोई खास ध्यान, चिंतवन वगैरह आवश्यक है या अपनेआप हो जाता है?

समाधानः- पुनर्जन्मका क्या करना? अपने आत्माको पहचान लेना। आत्मा ज्ञानस्वरूप ज्ञायक चैतन्य स्वरूप मैं ही हूँ। और शरीर मैं नहीं हूँ, परद्रव्य है। आत्मा चैतन्यतत्त्व ज्ञानस्वरूप है, जड कुछ जानता नहीं है। मैं जाननेवाला हूँ। राग-द्वेष, संकल्प-विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। मैं भगवान जैसा हूँ। ऐसा भेदज्ञान करके आत्माका स्वरूप पहचानो। बाकी पुनर्जन्मका ज्ञान होवे, या न होवे, ऐसा नहीं है कि उससे भवका अभाव हो सकता है।

भवका अभाव तो आत्माको पहचाननेसे होता है। इसलिये आत्माको पीछानो, आत्माकी जातिको पहचानो। आत्मा अनादिअनन्त शाश्वत है उसको पीछानो। ऐसा गुरुदेव कहते हैं, ऐसा शास्त्रमें आता है, आत्माको पीछानो। ज्ञायक आत्माको।

मुमुक्षुः- जैन स्थानकके बारेमें, बहिनश्री! यह ध्यान जो है, वह किस प्रक्रियासे प्रारम्भ किया जावे? आत्मामें गहरा ऊतरनेकी बात तो आप फरमाते हैं, मगर उसकी अ, ब, क, ख जो बारखडी, वर्णमाला है, वह क्या है? कहाँसे शुरू करे?

समाधानः- पहले सच्चा ज्ञान होता है, बादमें सच्चा ध्यान होता है। सच्चा ज्ञान, आत्माको जाने कि मेरा स्वभाव क्या है? मेरा स्वभाव क्या? मेरा अस्तित्व क्या? मेरा द्रव्य-गुण-पर्याय क्या है? सबको जाने बादमें उसमें एकाग्र होना। तो ध्यान होता है। जाने बिना एकाग्र किस चीजमें होगा? जानता नहीं है कि मैं कौन चैतन्य हूँ और ध्यान कहाँ करेगा? विकल्पका ध्यान होगा। मैं चैतन्य हूँ, निर्विकल्प तत्त्व हूँ, ऐसा भीतरमेंसे ज्ञान (करे)।

जैसे भगवानका आत्मा है, वैसा मैं हूँ। ऐसे चैतन्य स्वभावको पहचानेसे उसमें एकाग्र होनेसे, बारंबार एकाग्र होवे, बारंबार एकाग्र होवे। यह विकल्प मैं नहीं हूँ, मैं चैतन्य हूँ, बारंबार एकाग्र होवे तो ध्यान होता है। परन्तु ज्ञान करनेसे ध्यान होता है। मूल प्रयोजनभूत ज्ञान तो होना चाहिये। ज्यादा शास्त्रका ज्ञान होवे ऐसा नहीं, परन्तु प्रयोजनभूत तत्त्वको तो जानना चाहिये।

जैसे शिवभूति मुनि कुछ जानते नहीं थे। लेकिन मैं भिन्न और यह भिन्न है। वह औरत दाल और छिलका भिन्न करती थी कि यह छिलका भिन्न है, दाल भिन्न है। ऐसे मैं चैतन्य भिन्न हूँ, ऐसा थोडा भी ज्ञान भीतरमेंसे होना चाहिये। बादमें सच्चा ध्यान हो सकता है।