३६६
मुमुक्षुः- व्यक्तिगत जीवनके बारेेमें दिगम्बर शास्त्रोंमें कम मिलता है और अन्य शास्त्रोंमें जो मिलता है, उसको पढनेसे माथा एकदम गरम हो जाता है। जैसे कि कल्पसूत्रमें है या भगवती सूत्रमें है, जो कुछ महावीरके जीवनके बारेमें मिलता है, क्योंकि बहिनश्री उसे खूब पढा है। तो उसको पढनेसे माथे नसें जो हैं झनझना जाती है कि यदि अगर यह महावीर है तो वास्तविक महावीर कोई और होगा, यह सब भ्रान्तियाँ...
समाधानः- .. कुछ नहीं है। यथार्थ होवे, बस इतना... मुनिदशामें .. जूठा ग्रहण नहीं करना। थोडा होवे तो थोडा, परन्तु यथार्थ ग्रहण करना। श्वेताम्बर, स्थानकवासी थे। गुरुदेव सौराष्ट्रमें ऐसे प्रगट हुए कि उनसे सच्चा धर्म प्रगट हुआ।
मुमुक्षुः- ऐसा लगता है कि लोकाचार, जिनदत्त सूरी...
समाधानः- यथार्थ मार्ग (ग्रहण करना)। कोई सम्प्रदाय, वाडा किसीको ग्रहण नहीं करके, सच्चा धर्म प्रगट किया। बहुत तकलीफ हुयी तो भी सच्चा मार्ग प्रगट किया।
मुमुक्षुः- आशीर्वादस्वरूपमें बहुत प्राप्त किया। बहिनश्री! आज आपका स्वास्थ्य अच्छा नहीं होते हुए भी आपने हमें उदबोधन दिया, हम पर बडी कृपा करी। हमारे लिये तो.. गुरुदेवको भी हमने देखा नहीं है, तो गुरुदेवकी परम्पराको देखकर ही समझ रहे हैं कि आज गुरुदेवके चरणोंमें आ गये हैं।
समाधानः- (गुरुदेव) तो कोई और ही थे। सोनगढमें तो उनकी वाणी... निधि पामीने जन कोई निज वतने रही फळ भोगवे, तेम ज्ञानी परजन संग छोडी, ज्ञान निधिने भोगवे। गुरुदेवके पास इतनी वाणी सुनने मिली, गुरुदेवने सब दिया। गुरुदेवने मार्ग बताया, इतने शास्त्र समझाये। जो देना था वह सब गुरुदेवने दिया। अब अन्दर आत्माका करने जैसा है। एकान्तमें रहकर और अपना स्वाध्याय करके आत्माका कर लेने जैसा है। गुरुदेव ही है और गुरुदेवने इस पंचमकालमें सब दिया है।
शास्त्रमें तो ऐसा आता है, निधि पामीने जन कोई निज वतनमां रहे। ऐसा है, लेकिन निधि अर्थात अंतरकी निधि। ज्ञानीजन परजन संग छोडी, ज्ञाननिधि भोगवे अर्थात चैतन्यनिधिको भोगता है। अपने ऐसे शुभभावमें अर्थ लेते थे। गुरुदेवके पास.. अंतरमका प्रगट हो वह तो अलग ही बात है। अर्थ तो उसमें है, शास्त्रका अर्थ वह है। ज्ञाननिधिको तू एकान्तमें भोग। तेरी ज्ञाननिधिकी साधना कर, चैतन्यकी। परन्तु गुरुदेवसे जो मिला है, बरसों तक सान्निध्यमें (रहकर), उसे तू अब अन्दर (ऊतार)।