समाधानः- .. भिन्न है, आत्मा भिन्न है। दो तत्त्व भिन्न हैं। संकल्प-विकल्प भी अपना स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न आत्मा कैसे ज्ञात हो? वह करने जैसा है। उसकी जिज्ञासा, उसकी महिमा वह करने जैसा है। तत्त्व विचार, स्वाध्याय आदि सब करने जैसा है। स्वानुभूति कैसे प्राप्त हो? वह करने जैसा है।
अनन्त कालसे बाहर दृष्टि करके मानो बाहरसे सब मिल जायेगा, मानो बाहरसे सब आता है (ऐसे प्रवर्तता है)। बाहरसे कुछ नहीं आता, अंतरमेंसे आता है। थोडे शुभभाव करे, कुछ करे तो मानों मैंने बहुत किया, ऐसा उसे लगता है। परन्तु वह मात्र पुण्यबन्ध होता है, देवलोक प्राप्त होता है, लेकिन भवका अभाव तो शुद्धात्माको पहचाने तो ही होता है।
मुमुक्षुः- जागृतरूपसे विद्यमान है, शक्तिरूप है उसे जागृत कैसे कहना?
समाधानः- वह जागृत ही है। उसका घात नहीं हुआ है। उसका ज्ञानस्वभाव तो जागृत ही है। ज्ञान दब नहीं गया है। ज्ञानस्वभाव ज्ञायक स्वयं जागृत ही है। वह स्वयं बाहर लक्ष्य करता है, बाहरका पुरुषार्थ करता है इसलिये ऐसा लगता है कि मैं गुम गया। लेकिन वह जागृत ही है। ज्ञायक उसका ज्ञानस्वभावका घात नहीं हुआ है। ज्ञायक स्वयं अनादिअनन्त शाश्वत जागृत ही है। स्वभावका घात नहीं हुआ है इसलिये जागृत ही है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- शक्ति तो है, परन्तु उसका स्वभाव ज्ञायक स्वभाव है वह जागृत है। शक्तिका अर्थ ऐसा नहीं है कि वह शक्ति ऐसे ही पडी है, कुछ करती नहीं है ऐसा नहीं है। ज्ञायक तो जागृत ही है। कार्य यानी पर्यायरूप स्वानुभव...स्वभाव वैसा ही है।
मुमुक्षुः- ... मुमुक्षुता प्रगट हुयी है, ऐसा स्वयंको अपना जीवन देखना हो तो किस लक्षणसे ख्याल आवे कि यह सच्ची मुमुक्षुता है? बाहरमें तो सबके साथ सब चलता रहता है, फिर भी कभी शंका पड जाती है कि मुमुक्षुता ही सत्यार्थ है या नहीं?