Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

८० यह तो मुझे मेरे आत्माके लिये करना है। ये अनन्त कालका परिभ्रमण कैसे मिटे और अन्दरसे मेरा सुख प्रगट हो और यह दुःख कैसे टले, ऐसा अनुपम आत्मा मुझे कैसे प्राप्त हो, यह मुझे मेरे खातिर करना है। यदि मैं संतुष्ट हो जाऊँ, मुझे कुछ लगता नहीं है, तो आगे नहीं बढ (पाऊँगा)। सच्ची खटक लगी हो, वह संतुष्ट नहीं होता। मात्र मुझे कर लेना है और मुझे कुछ करना है, ऐसा हेतु अन्दर हो तो संतुष्ट हो जाता है। आकूलता और अधैर्यसे पुरुषार्थ कर लूँ, ऐसी अधीरता जिसे होती है वह संतुष्ट हो जाता है।

अन्दर धोखा खानेके तो अनेक रास्ते होते हैं। जिज्ञासा हो, फिर होता ही नहीं हो तो थोडा पुरुषार्थ करके (मान लेता है कि), अब मुझे हो गया, अब मुझे हो गया। ऐसी कल्पना करता हो उससे (कोई कार्य हो नहीं जाता)। सच्चा आत्मार्थी हो वह अन्दर संतुष्ट नहीं होता। अन्दर उसे आत्मा यथार्थरूपसे भास्यमान होकर जो अन्दरसे यह आत्मा और यही स्वरूप, ऐसा जो अंतरसे आना चाहिये वह नहीं आता है, वह अन्दर संतुष्ट होता ही नहीं।

भले ही उसे ऐसी शांति, शांति लगे, परन्तु अन्दर एकत्वबुद्धि टूटी नहीं है और अंतरमेंसे जो भिन्न भास्यमान होना चाहिये वह होता नहीं। उसे कोई मार्ग हाथ नहीं लगा है, कोई ज्ञायक (प्राप्त) नहीं हुआ है, उस ओर जानेका अन्दर यथार्थ मार्ग नहीं मिला है। मात्र शांति-शांति लगे, उसमें अटक जाये, जो सच्चा आत्मार्थी होता है वह अटकता नहीं। बहुत लोग ध्यान करते हैं उसमें उसे ऐसी शांति लगे, विकल्प मन्द हो जाये और मानो विकल्प छूट गये, ऐसा उसे लगता है। अन्दर सूक्ष्मतासे देखे तो अन्दर मन्द विकल्प होते ही हैं। उससे भिन्न नहीं हुआ है। आत्माके अस्तित्वपूर्वक, ज्ञायकका अस्तित्व कुछ प्रगट हो उसके साथ छूटना चाहिये। वह तो छूटा नहीं। सच्चा आत्मार्थी अटकता नहीं।

समाधानः- .. यह किसीको दिखानेका मार्ग या स्वयं गलत तरीकेसे संतुष्ट हो जाना, वह मार्ग नहीं है। अंतरसे आना चाहिये। सच्चे आत्मार्थीकी दृष्टि अन्दर घुमती रहती है कि अभी कुछ नहीं लगता है। सच्चा आत्मार्थी अटकता नहीं। मेरे लिये है, अन्य किसीके लिये है क्या? अटक जाऊँ, रुक जाऊँ तो वही जन्म-मरण इत्यादि सब खडा ही है। मेरे लिये है या कोई और के लिये है?

मुमुक्षुः- पूर्ण सिद्धि तो द्रव्यदृष्टिसे होगी।

समाधानः- द्रव्यदृष्टि किसे कहते हैं? द्रव्यदृष्टिके साथ, द्रव्य पर दृष्टि करे उसके साथ ज्ञान सम्यक होता है। और वह ज्ञान दोनोंको जानता है। द्रव्यको जाने और पर्यायको जाने। ज्ञान दोनोंका स्वीकार करता है। द्रव्यदृष्टिका जोर रहता है, परन्तु उसके