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साथ ज्ञान भी काम करता है। वह ज्ञान जानता है कि पर्यायमें मेरा अधूरापन है, पर्यायमें अभी विभाव है, द्रव्यमें शुद्धता है और वह शुद्धता-साधना करनी बाकी है। ज्ञान सब जानता है। इसलिये वह साधना करनी बाकी रहती है।
सम्यग्दृष्टि और ज्ञान, दोनों साथमें रहते हैं। द्रव्यदृष्टि, सम्यक द्रव्यदृष्टि हो उसके साथ ज्ञान भी, द्रव्य और पर्यायका ज्ञान भी होता है। अकेली द्रव्यदृष्टि हो और ज्ञान कोई काम नहीं करे तो वह दृष्टि सम्यक नहीं हो सकती। सम्यक द्रव्यदृष्टि हो, भले मुख्यरूपसे हो तो भी ज्ञान उसके साथ काम करता है। उसमें पर्याय है ही नहीं और पर्यायकी अशुद्धता नहीं है, पर्यायदृष्टि यानी पर्याय नहीं है ऐसा उसका अर्थ नहीं है। उसकी अपेक्षा अलग है। अपेक्षा यानी वस्तुमें पर्याय ही नहीं है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। पर्याय है, परन्तु उसकी अपेक्षा अलग है।
समयसारमें आता है कि भूतार्थ दृष्टिसे देखें तो कमलिनीका पत्र जो है, वह कमल निर्लेप है। अभूतार्थ दृष्टिसे देखें तो वह पानीमें है और लिप्त है। भूतार्थ दृष्टिके समीप जाकर देखें तो वह शुद्ध है। अभूतार्थ दृष्टिसे देखो तो वह कमलमें पानीमें है। जैसे वह कीचडमें रहा है, फिर भी निर्लेप है। लेकिन वह कीचडमें है ही नहीं, ऐसा उसका अर्थ नहीं है।
(पानी स्वभावसे) निर्मल है, शीतल है। लेकिन पानीमें किसी भी अपेक्षासे मलिनता हुई ही नहीं है, ऐसा नहीं है। मलिनता है परन्तु निर्मली औषधि डालनेसे वह निर्मलता प्रगट होती है। मूलमें स्वभाव शीतल है। स्वभावका नाश नहीं हुआ है। परन्तु वह पुरुषार्थ करनेसे प्रगट होता है। शीतलताका लक्ष्य रखकर यानी द्रव्य पर दृष्टि करके, उसे निर्मलता प्रगट करनी बाकी है। अकेली द्रव्यदृष्टि हुई, एक ही है और उसमें और कुछ है ही नहीं, तो साधना (किसकी)? तो शुद्धताका अनुभव होना चाहिये। तो जीवको अभी सिद्धदशाका अनुभव होना चाहिये। सिद्धदशाका अनुभव तो है नहीं। यदि अशुद्धता हो ही नहीं तो सिद्धदशाका अनुभव होना चाहिये। पर्याय यानी किसी भी अपेक्षासे अशुद्धता हो ही नहीं तो शुद्धताका अनुभव होना चाहिये। जीवको शुद्धताका अनुभव तो है नहीं। वस्तुस्थिति, स्वभाव उसका नाश नहीं होता।
स्वभाव पर दृष्टि करनेसे साधना तैयार होती है। परन्तु उसके साथ यदि पर्यायका ध्यान नहीं रखे तो-तो साधना हो ही नहीं सकती। यथार्थ द्रव्यदृष्टि उसे प्रगट होती है कि जिसके साथ साधना हो, जिसके साथ पर्यायमें अशुद्धता है उसका उसे ध्यान होता है कि पर्यायमें अशुद्धता है, अभी शुद्धता प्रगट करनी बाकी है। द्रव्यदृष्टिसे मैं परिपूर्ण शुद्ध हूँ, परन्तु पर्यायमें अशुद्धता है। दोनोंका उसे ध्यान रखना है। दोनों वस्तुको बराबर यथार्थ समझे तो मुक्तिका मार्ग प्रारंभ होता है।