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मुमुक्षुः- सम्यक एकान्तपूर्वक अनेकान्त..
समाधानः- हाँ, सम्यक एकान्त। सम्यक एकान्तके साथ अनेकान्त होना चाहिये। सम्यक एकान्त किसे कहते हैं? कि, जिसके साथ अनेकान्त हो तो ही उसे सम्यक एकान्त कह सकते हैं। यह शरीर आत्माका स्वरूप नहीं है। जो कुछ रोग आता है वह शरीरमें आता है, आत्मा तो भिन्न है। आत्मा ज्ञायक जानने वाला है। उसका भेदज्ञान करे कि शरीर भिन्न है और मैं भिन्न हूँ। अन्दर जो विकल्प आते हैं, वह स्वयंका स्वभाव नहीं है। उससे आत्मा भिन्न है। उस पर दृष्टि करके, उसका भेदज्ञान करके और उसकी भावना प्रगट करनी, वही करना है। और जबतक वह नहीं होता, तबतक उसकी भावना करनी। शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और अन्दर शुद्धात्माकी पहचान कैसे हो, ऐसी भावना, वही जीवनमें करने जैसा है।
समाधानः- ... अर्थात स्वयं विभावसे भिन्न होता हुआ, ज्ञायक ज्ञायकरूपसे परिणमित होता हुआ, विभावसे भिन्न हुआ वह कर्मसे भिन्न होता है। अन्दर स्वयंकी जो विभाव परिणति है, वह विभाव परिणति स्वयंका स्वभाव नहीं है। स्वयं मन्दतासे जुडता है। उसे एकत्वबुद्धिमेंसे तोड दे। उससे भिन्न हुआ वह सबसे भिन्न होता है। उसे कर्मकी निर्जरा ही होती है। उसे उसप्रकारसे एकत्वरूप कर्म बन्ध होता ही नहीं। शरीरसे भेदज्ञान हुआ, विभावसे भेदज्ञान (हुआ), सबसे ज्ञायक भिन्न हुआ, सबसे भिन्न ही भिन्न, ज्ञायक तैरता ही रहता है। इसलिये जो कर्म आते हैं, मात्र आकर चले जाते हैं। ऐसे अल्प बंधते हैं। थोडे रसपूर्वक बँधते हैं, तीव्र रससे उसे नहीं बँधते। ऐसी ज्ञायककी धारा उसे वर्तती ही रहती है।
निर्जरा अधिकारमें सब ज्ञायककी अपेक्षासे लिया है। ज्ञानीको अन्नका परिग्रह नहीं है, पानीका परिग्रह नहीं है, सबकुछ होनेके बावजूद, नहीं है, नहीं है ऐसा कहा है। ज्ञायक उससे भिन्न पड गया है।