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समाधानः- .. इसलिये ऐसा ही लगता है। ऐसा बहुत लोग कहते हैं। गुरुदेव यहाँ कितने ही वर्ष रहे हैं।
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी भूमि, यह क्षेत्र, यह स्थान...
समाधानः- .. ऐसे महापुरुष जागे तो ऐसा ही होता है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी कोई नकल नहीं कर सकता।
समाधानः- नकल कहाँसे कर सके? उनकी वाणीमें अतिशयता थी, वाणीका पुण्य भी अलग था। तीर्थंकर भगवान जो भविष्यमें होंगे, उनकी वाणी इस भवमें भी अलग थी, अलग ही थी। ... गुरुदेवने एकदम आत्माको समझाया। आत्मामें मुक्तिका मार्ग है, स्वानुभूति प्रगट करो, सब गुरुदेवने मार्ग बताया। स्वानुभूतिमें आनन्द है। एक आत्मा, एक ज्ञायक आत्मा, सब भेदभावोंको गौण करके एक आत्माको पहचानो, ऐसा कहते थे। सब ज्ञानमें आवे, लेकिन लक्ष्यमें एक आत्मा, अखण्डको लक्ष्यमें लेना। सब गुरुदेवने बताया है। स्वानुभूतिका मार्ग (बताया है)। ... बरसों तक यहाँ रहते थे और फिर विहार करते थे।
मुमुक्षुः- पूज्य गाँधीजीने ... दो या तीन पंक्तिमें आ जाय, परन्तु एक-एक वस्तु पर विचार करें तो बहुत गहराईसे विचार कर सकते हैं।
समाधानः- .. आता है, मूल शास्त्र तो इतने सूक्ष्म है कि सुलझाना मुश्किल पडे। उसमें द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यकी बातें आती हैं, बहुत सूक्ष्म। उसके प्रवचन, गुरुदेवके बहुत प्रवचन (हुए हैं)। यह तो आपको आसान पडे इसलिये ऐसे...
समाधानः- ... हिन्दुस्तानमें बहुत लोग यहाँ मुड गये। बहुत लोग यहाँ लाभ लेने आते और स्वयं भी विहार करते थे, हर साल कुछ महिने जाते थे।
.. चलता ही रहता है, आत्माका कर लेना वह करना है। गुरुदेवने बहुत कहा है। मार्ग एकदम स्पष्ट करके बताया है। स्वयं पुरुषार्थ करे तो कहीं भूल रहे ऐसा नहीं है। इसलिये गुरुदेवने कहा है, वही मार्ग ग्रहण करना है। आत्माको पहचाननेका है। आत्मा चैतन्य ज्ञायकतत्त्व सबसे भिन्न है, शाश्वत है। जो देह धारण करता है, एकसे दूसरा, दूसरेसे तीसरा, लेकिन आत्मा तो शाश्वत ही है, इसलिये आत्माको ग्रहण कर लेना। आत्माका आनन्द, आत्माका सुख और आत्माके गुण कैसे प्राप्त हो, वही जीवनमें करने जैसा है। उसीके संस्कार डालने और बारंबार उसीका मनन, चिंतवन करने जैसा है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, स्वाध्याय, विचार, ज्ञायक... बारंबार भेदज्ञानका अभ्यास करना। आत्माकी स्वानुभूति कैसे प्राप्त हो, यह करने जैसा है। वही करने जैसा है। बाकी अनन्त जन्म-मरण किये उसमें जीव कहीं-कहीं अटक गया है, बाहरमें थोडे शुभभाव किये तो मैंने बहुत किया ऐसा मान लिया। पुण्यबन्ध हुआ, अनन्त बार देवलोकमें