३७२ जिज्ञासा, उसकी महिमा, उसकी लगनी, बारंबार तत्त्वका विचार, स्वाध्याय आदि सब होना चाहिये, निरंतर। सुख आत्मामें है, बाहरमें नहीं है।
मुमुक्षुः- ... जैसे कि यह क्रमबद्ध पर्याय पुस्तक है। उसके पढनेसे कभी स्वच्छन्दपना भी आता है।
समाधानः- क्रमबद्ध ऐसा समझना चाहिये कि पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। जो क्रमबद्ध होता है, वह क्रमबद्ध ऐसा होता है कि... क्रमबद्ध सच्चा किसने जाना? जिसने ज्ञायकको जाना उसने क्रमबद्ध जाना। मैं ज्ञाता ही हूँ। मैं परपदार्थका कुछ कर नहीं सकता, मैं ज्ञायक-ज्ञाता हूँ। ऐसी ज्ञाताधारा जिसको प्रगट होती है, वह सच्चा क्रमबद्ध जान सकता है। क्रमबद्धका ऐसा नहीं समझना चाहिये कि पुरुषार्थ नहीं करके स्वच्छन्द करना, ऐसा उसका अर्थ नहीं है।
पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होना चाहिये। पुरुषार्थ (करे कि), मैं कैसे आत्माको पहचानूँ? कैसे स्वभावकी परिणति प्रगट करुँ? स्वभावकी परिणतिपूर्वक क्रमबद्ध होता है। पुरुषार्थ बिनाका क्रमबद्ध नहीं होता। उसमें पुरुषार्थ आ जाता है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थके लिये हम यह सोचते रहें कि जब होना होगा तब होगा।
समाधानः- होनेवाला होता है, परन्तु जिसको आत्माका कल्याण करना है, उसको ऐसा होना चाहिये, मैं कैसे पुरुषार्थ करुँ? मैं कैसे करुँ? ऐसी भावना होनी चाहिये। जब होनेवाला होगा तब होगा, ऐसा जिज्ञासुको और जिसको आत्माका स्वभाव प्रगट करना है, उसको ऐसी शान्ति नहीं होगी। उसको ऐसा होता है, मैं कैसे आत्माको पहचानूँ? कैसे पुरुषार्थ करुँ? मेरी स्वभावकी ओर पर्याय कैसे होवे? उसको ऐसे शान्ति होगी।
जिसका अच्छा क्रमबद्ध होवे, उसको ऐसा पुरुषार्थ.. पुरुषार्थ ऐसी भावना होती रहती है। जिसको नहीं करना है वह ऐसा अर्थ ले लेता है कि जब होना होगा तब होगा। लेकिन जिसको सच्ची जिज्ञासा है, उसका पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। जिसका होता है, उसका पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है।
ज्ञायकको जो जानता है उसका ही क्रमबद्ध सच्चा है। जो पुरुषार्थ नहीं करता है, उसका क्रमबद्ध ऐसा ही है। उसमें पुरुषार्थ साथमें होता है। अकेली काललब्धि नहीं होती है, सब साथमें होते हैं। उसको पुरुषार्थ साथमें होता है।
मुमुक्षुः- क्रमबद्धका उसने सुना है, लेकिन अभी ज्ञायक तक पहुँचा नहीं है, तो उसका पुरुषार्थ ज्ञायककी ओर चलता रहे, तो क्रमबद्धमें जो होनेवाला होगा वह होगा, ऐसे ज्ञानका वह कैसे उपयोग करे?
समाधानः- उसका उपयोग ऐसे हो कि, उसमें अकुलाहट और उलझन होती