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हो तो उसका आश्रय ले, बाकी भावना तीव्र हो उसे उसका आश्रय सहज ही आ जाता है। बहुत आकुलता या उलझन होती हो तो उसमें उसे आश्रय आता है। बाकी जिसे स्वभावकी ओर मुडना है, मैं पुरुषार्थ कैसे करुँ? यह प्रमाद क्यों हो रहा है? ऐसी ही उसकी भावना होती है।
मुुमुक्षुः- अर्थात कभी-कभी उसे अकुलाहट हो जाती है कि स्वभाव क्यों प्राप्त नहीं हो रहा है? तो उस वक्त कदाचित ऐसा आश्रय ले।
समाधानः- हाँ, ऐसा आश्रय ले, बाकी पुरुषार्थकी ओर ही आत्मार्थीका लक्ष्य होता है। ... मैं पुरुषार्थ करुँ, पुरुषार्थ करुँ, उसमें क्रमबद्ध तो साथमें आ जाता है।
... मैं परका कर सकता हूँ, यह कर सकता हूँ, वह कर सकता हूँ.. स्वभावका आश्रय लेनेमें क्रमबद्धका आश्रय ले तो प्रमादकी ओर उसका चला जाना होता है। आत्मार्थीको...
मुमुक्षुः- .. कर्तृत्व होता हो, तो क्रमबद्ध होता है, ऐसा करके उसे छोड देता है। समाधानः- हाँ, उसे छोड देता है। मुमुक्षुः- परन्तु जब स्वयंकी भावना हो.. समाधानः- तो मेरा स्वयंका प्रमाद है। मुमुक्षुः- मेरा स्वयंका प्रमाह है और मैं कैसे प्राप्त करुँ, ऐसा उसे उत्साह... समाधानः- उत्साह रहना चाहिये। अपने दोषकी ओर देखता है।