३७४
मुमुक्षुः- माताजी! मैं ज्ञानस्वभावी हूँ, तो हमारा यह विभाव परिणमन क्यों होता है?
समाधानः- अनादिका हो रहा है। ज्ञानस्वभाव तो है। अनादिका हो तो रहा है, विभावका वेदन तो होता है। और जब हो रहा है, उसे तोडना कैसे? यह करना है, वह उपाय करना है। हो तो रहा है अनादिका।
आत्मा शुद्ध स्वभाव द्रव्यसे है और पर्यायमें अनादिसे हो रहा है। जिसको उसकी आकुलता लगे, दुःख लगे तो तोडनेका उपाय करना। हो तो रहा है, क्यों हो रहा है क्या? हो रहा है। वह तो दिखनेमें आता है। पर्यायमें कर्म और आत्मा अनादिसे ऐसे ही चले आते हैं, अनादि सम्बन्धसे। द्रव्यमें तो शुद्धता है, पर्यायमें ऐसा हो रहा है।
मुमुक्षुः- भगवान कुन्दकुन्दस्वामी जब सीमंधर भगवानके पास गये, उस वक्त क्या आपकी आत्मा वहाँ थी?
समाधानः- सब लोग बहुत पूछने आते हैं तो मुझे बहुत प्रवृत्ति हो जाती है।
मुमुक्षुः- हमारा तो कभी.. बाहरसे आये हैं हम लोग।
समाधानः- गुरुदेवने बहुत बताया है, गुरुदेवने तो बहुत बताया है। गुरुदेव कहते थे, हम सब थे, ऐसा गुरुदेव कहते थे। गुरुदेव स्वयं कहते थे। हम सब थे, ऐसा कहते थे।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- ऐसा उसको राग था। सम्यग्दृष्टि थे, लेकिन उनको वीतरागता नहीं हुयी थी। वीतरागता पूर्ण नहीं हुयी। चारित्रदशा, स्वरूपमें लीनता ऐसी विशेष नहीं हुयी थी। राग था ना, राग था इसलिये रागके कारण ऐसा हुआ। रागके कारणसे ऐसा होता है। भीतरमें जानते हैं, भेदज्ञान है, यह सब भिन्न है। यह मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसा जानता है, तो भी राग ऐसा कार्य करता है कि रागके कारणसे लक्ष्मणका राग नहीं छूटता है, इसलिये उसको लेकर फिरते हैैं। मैं इसको छोड नहीं सकता। लक्ष्मणको मैं कैसे छोड दूँ? वह राग नहीं छोड सकते। भीतरमें मानते भी थे कि