इसमें जीव नहीं है, तो भी उसका राग नहीं छूटता था, इसलिये फिरते थे।
बलभद्र थे ना, वासुदेव थे। इसलिये उसका राग, भाईके ऊपर ऐसा बहुत राग होता है, इसलिये छोड नहीं सकते थे। बादमें जब राग (खत्म) हो गया, बादमें होता है, बादमें पलट जाते हैं। राग नहीं छूटता है। भेदज्ञान होनेपर भी राग नहीं छूटता है। जानते हैं तो भी राग नहीं छूटता है। इसलिये फिरते हैं।
मुमुक्षुः- माताजी! क्रमबद्ध पर्याय जो निकलती है, वह शुद्ध-शुद्ध निकलती है या शुद्ध और अशुद्ध दोनों निकलती है?
समाधानः- शुद्ध और अशुद्ध दोनों क्रमबद्ध ही होती है, परन्तु अपने पुरुषार्थकी ओर दृष्टि रखनी चाहिये। पुरुषार्थ उसमें साथमें रहता है। अपनी कमजोरीसे अशुद्ध होता है, पुरुषार्थ करे तब शुद्धकी पर्याय होती है। वह साथमें क्रमबद्ध चलता है। पुरुषार्थके साथमें क्रमबद्ध लेना चाहिये।
मुमुक्षुः- हमारी जो पर्याय निकलती है, अन्दरसे जो पर्याय निकलती है, वह शुद्ध निकलती है या शुद्ध-अशुद्ध दोनों निकलती है? बाहर आकर अशुद्ध हो जाती है या अन्दरसे अशुद्ध आती है?
समाधानः- अन्दरसे अशुद्ध होती नहीं। अशुद्ध तो कर्मका निमित्त है, इसलिये उस ओर दृष्टि करता है, इसलिये अशुद्ध होती है। द्रव्य तो शुद्ध है। ... होता है, जब वह निमित्त होता है, तब उसका लाल-पीला परिणमन होता है। स्फटिकमें भीतरमेंसे लाल नहीं आता है।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- स्फटिकमें तो निर्मल पर्याय होती है। स्फटिक तो सफेद है। उसमें जब लाल दिखता है, वह निमित्तके कारण, उपादान अपना, लाल होता है वह स्फटिकका मूल स्वभाव नहीं है। वह मूल स्वभाव नहीं है। परिणमन स्फटिकका है, लाल जो होता है वह उसका मूल स्वभाव नहीं है, वह विभावपर्याय है। इसलिये उसका मूल स्वभाव नहीं है, भीतरमेंसे लाल रंग नहीं आता है। पर्यायका पलटन होता है। निमित्त साथमें रहता है।
मुमुक्षुः- .. भाव भी है, परन्तु टिकता नहीं है।
समाधानः- अपनी मन्दता है। नहीं टिकता है, उसमें भी अपना कारण है। अपने प्रमादके कारण टिकता नहीं है। स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है। नहीं टिकनेका कारण स्वयंका ही है। प्रमाद अपना है। भेदज्ञान नहीं होनेका कारण अपना है। अनादि कालसे नहीं करता है इसलिये नहीं होता है। स्वयं करे तो होता है। अपनी क्षति है। लक्ष्य हो तो भी पुरुषार्थ करनेका बाकी रहता है। यथार्थ लक्ष्य, यथार्थ ज्ञायककी प्रतिती,