Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

३७६ भेदज्ञान सबका पुरुषार्थ स्वयंको करनेका है। लक्ष्य हो, विचार किया कि सत्य यही है, परन्तु उस प्रकारका पुरुषार्थ करना उसकी क्षति होती है। वह क्षति है, वैसी स्वयंकी क्षति है। क्षति है।

मुमुक्षुः- ज्ञानलक्षण द्वारा दिखता है, ज्ञात होता है, वेदनमें आता है। तो उस वेदनमें यह जो ज्ञात होता है, उसका मैं जाननेवाला हूँ। इस प्रकारसे उसका अवलोकन करके उस ओर मोड लेना। यह जो चीज जाननेमें आती है, उस चीजको जाननेवाला मैं हूँ, इस प्रकार अपना अवलोकन शक्तिको उस ओर मोडनी पडती है कि उसके ख्यालमें सीधा आ जाता है?

समाधानः- यह जाननेमें आता है, उसे जाननेवाला मैं, ऐसे नहीं, मैं स्वयं जाननेवाला हूँ। स्वयं जाननेवाला ज्ञायक हूँ। यह बाहरका ज्ञात हो उसे जाननेवाला मैं, ऐसे नहीं। मैं स्वयं जाननेवाला हूँ। अब तक बचपनसे लेकर अभी तक जो-जो भाव आये, उसको स्वयं जाननेवाला (हूँ), वह जाननेवाला वैसा ही है। वह सब पर्यायें चली गयी, सब संकल्प-विकल्प चले गये तो भी जाननेवाला तो वैसा ही है। जाननेवाला स्वयं सब लक्ष्यमें ले सकता है।

गुरुदेवके पास क्या सुना? क्या जिज्ञासा, क्या भावना (थी)? वह सब जाननेवाला तो जाननेवाला ही है। स्वयं जो जाननेवाला है, वह जाननेवाला मैं हूँ। यह ज्ञात होता है वह मैं, ऐसे नहीं। स्वयं जाननेवाला स्वयं ज्ञायक स्वतःसिद्ध मेरी शक्ति जाननेकी अनादिअनन्त है। ज्ञेयको जानता हूँ, इसलिये जाननेवाला, ऐसे नहीं। मैं स्वयं जाननेवाला ही हूँ। स्वयं जाननेवाला चैतन्यशक्ति, मेरी स्वयं जाननेकी शक्ति है, स्वयं जाननेवाला हूँ। ऐसे ज्ञानलक्षणसे स्वयंको (पहचानना)। एक ज्ञानलक्षण द्वारा पूरा ज्ञायक पकड लेता है। ज्ञानलक्षणसे एक गुण जानता है, ऐसा नहीं, परन्तु स्वयं ज्ञायक हूँ। स्वयं पूर्ण जाननेवाला द्रव्य, मैं जाननेवाला ही हूँ।

मुमुक्षुः- वह स्वयं ज्ञानदशा परसे यह स्वयं मेरेमेंसे उत्पन्न हुयी है और मैं ऐसी वस्तु हूँ, वहाँ तक उसका ज्ञान चला जाता है?

समाधानः- वहाँ चला जाता है। मैं स्वयं ज्ञायक वस्तु ही हूँ। एक जाननेवाला अखण्ड ज्ञायक जाननेवाला ही हूँ।

मुमुक्षुः- ज्ञानलक्षणसे ज्ञात होता है, फिर दूसरे जो लक्षण कहनेमें आते हैं कि मैं आनन्दमय हूँ, मैं निर्विकल्प हूँ, अखण्ड हूँ, मैं ध्रुव हूँ, परिपूर्ण हूँ, तो यह सब लक्षण उसे कब प्रमाणरूपसे ख्यालमें आते हैं?

समाधानः- ज्ञायकलक्षण तत्त्व हूँ। जो तत्त्व हो, वह पूर्ण ही होता है। तत्त्व ऐसा कोई अधूरा नहीं होता। मैं परिपूर्ण हूँ। उसमें उसे सब साथमें समझमें आ जाता