समाधानः- आलसके कारण ही, निज नयननी आळसे रे, निरख्या न नयणे हरि। गुरुदेव प्रवचनमें बोलते थे। अपने नेत्रकी आलसके कारण, अपने पास रहे हरिको स्वयंने देखा नहीं। स्वयंने देखनेकी आलस की है। स्वयं दिखाई दे ऐसा होनेपर भी पर अभ्यास, विभावके अभ्यासके कारण अपने देखनेके नेत्रसे स्वयं अपने चैतन्यहरिको देखा नहीं, उसके दर्शन नहीं किये। स्वयं अपने नेत्रकी आलससे अनादि काल गँवाया है। कहीं- कहीं गया तो कहीं न कहीं अटक गया, कोई क्रियामें, शुभभावमें। और अभी इस पंचमकालमें ऐसे गुरुदेव मिले, जिन्होंने कहा कि शुभभावमें धर्म नहीं है। अन्दर शुद्धतासे भरे आत्मा शुद्धात्माको पहचान है। तो भी जीव अपने प्रमादके कारण अटक रहा है।
मुमुक्षुः- अनुभवदृष्टि द्वारा, ऐसा शब्दप्रयोग करते थे। अर्थात स्वयंको जो अनुभवमें आ रहा है, उसी अनुभव द्वारा देखना ऐसा? उसमें क्या कहना था?
समाधानः- अनुभवको, स्वयं अपने स्वभावका अनुभव करके उस दृष्टि द्वारा देख। स्वयं अपने स्वभावदृष्टि द्वारा देखे, अनुभवदृष्टि। उसका वेदन करके, यदि अन्दर गहराईमें जाकर उसका आंशिक वेदन करके भी देखे। अनुभवदृष्टि करके उसकी शान्तिका वेदन कर।
मुमुक्षुः- कहीं तो रुकावट तो है, किस प्रकारकी रुकावट है वह सीधा लक्ष्यमें नहीं आता है। कुछ मार्गदर्शन मिलता रहे, ऐसी भावना होती है, परन्तु आपका स्वास्थ्य अनुकूल (नहीं रहती है)।
समाधानः- स्वास्थ्य ऐसा रहता है। कोई-कोई बार कोई प्रश्न पूछता है तो जवाब देती हूँ। ... कुछ बाकी नहीं रखा, एकदम स्पष्ट कर दिया है।
मुमुक्षुः- टेप सुनते हैं तो भी कई बार ऐसा लगता है कि गुरुदेवको सुनते थे, उस वक्त इस भाव पर ध्यान नहीं दिया, इस भाव पर ध्यान नहीं दिया। जैसे- जैसे टेप सुनते हैं तो बहुत बार ऐसा ख्यालमें आता है।
मुमुक्षुः- यह सब जानता है वह कौन है? ... यह सब जानता है इसलिये मैं ज्ञानी हूँ। दूसरेने कहा, यह सब नहीं, लेकिन वही मैं हूँ...