जैसा है, वैसा उसे अनुभवमें आता है। आत्माके अनन्त गुण, आनन्दादि अनन्त गुणोंका जिसमें अनुभव होता है-वेदन होता है, कोई अलग ही दुनियामें वह चला जाता है। यह विभावकी दुनिया नहीं, परन्तु उसकी स्वभावकी दुनिया, वही उसका स्वघर है, उसमें वह बस जाता है। स्वानुभूति, लौकिक अनुभवसे अलग अलग जो अलौकिक अदभूत दशा, जो भूतकालमें कभी नहीं हुयी। वह अपूर्व है। जीवने सब किया, परन्तु आत्माका स्वानुभव-सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं किया।
गुरुदेव कहते थे कि, सम्यग्दर्शन प्रगट करना वह कोई अपूर्व है। जीवने अनन्त कालमें.. आचार्यदेव भी कहते हैं कि, जिनवर स्वामि मिले नहीं है, सम्यग्दर्शन नहीं हुआ है। अतः अनन्त कालमें यह दोनों अपूर्व हैं। जिनवर स्वामि मिले, लेकिन स्वयंने पहचाना नहीं, इसलिये मिले नहीं है। सम्यग्दर्शन कोई अपूर्व है, अनन्त कालमें जीवने कभी प्राप्त नहीं किया है। यदि प्राप्त किया हो तो उसका भवभ्रमण होता नहीं। जिसे सम्यग्दर्शन हो, वह अंतरमें आगे बढता-बढता अप्रतिहत दशासे जो बढता है, फिर क्रमशः उसे मुनिदशा आती है। स्वानुभूति बढते-बढते अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें क्षण-क्षणमें आत्मामें लीन होता हुआ, मुनिदशामें तो ऐसा लीन होता है, अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्त क्षण-क्षणमें, ऐसा करते-करते केवलज्ञान दशाको प्राप्त करता है। इसलिये जिसे स्वानुभूति होती है, उसका तो भवभ्रमण मिट जाता है। उसका पूरा जीवन आत्मामय हो जाता है। उसका पूरा जीवन पलट जाता है।
मुमुक्षुः- इन्द्रिय सुख दुःखरूप है। जैसे यहाँ सूई चूभी और दुःख महेसूस हुआ, ऐसा इन्द्रिय सुख भोगते हुए दुःख क्यों नहीं महेसूस होता?
समाधानः- क्या इन्द्रिय सुख?
मुमुक्षुः- जैसे इन्द्रिय सुख दुःखरूप है, ऐसा आगमकथन बहुत सुना। तो जैसे यहाँ काँटा चूभाया तो दुःखरूप महेसूस हुआ, ऐसा इन्द्रिय सुख भोगते समय दुःखरूप महेसूस क्यों नहीं होता?
समाधानः- उसको ज्ञान नहीं है तो बुद्धिका भ्रम हो गया। आकुलता-आकुलता है, सब आकुलतामें पडा है। आकुलता ही दुःख है यानी बुद्धिका भ्रम है। कल्पनासे, भ्रमसे उसने सब पदाथामें सुख मान लिया है। भीतरमें विचार करे तो आकुलता है, आकुलता है। स्वभावसे विपरीत विभाव दशा सब आकुलतारूप है-दुःखरूप है। आकुलता है, आकुलताका वेदन है। कल्पनासे उसे सबमें सुख लगता है। कल्पना है। विचार करे तो सब दुःख है। कोई ऐसा देखनेमें आता है कि यह दुःख है, परन्तु सब दुःख है।
देवलोकमें जाय तो देवलोकमें सुख लगता है, नर्कमें दुःख देखनेमें आता है। परन्तु देवलोकमें भी भीतरमें आकुलता है। आकुलता ही दुःख है। मूल दुःख आकुलता है।