४०८ भीतरमें जो आकुलता, संकल्प-विकल्पकी आकुलता है, वह सब आकुलता दुःखरूप है।
जो स्वाधीन सुख है, वह उसका नाम है, जिसमें परपदार्थके आश्रयकी जरूरत न होवे, परकी जरूरत जिसमें न होवे, जो स्व-आश्रय-चैतन्यके आश्रयसे-जो प्रगट होवे, स्वयं प्रगट होवे, स्वतःसिद्ध प्रगट होवे, वह सुख है। वह सुख आत्माका स्वभाव है। जिसमें परपदार्थकी जरूरत पडती है, इन्द्रयोंकी जरूरत पडती है, किसीके आश्रयकी जरूरत पडती है वह सुख नहीं है। जो पराधीन है, वह सब सुख नहीं है।
गुरुदेव कहते हैं, पराधीनतामें स्वप्नमें भी सुख नहीं है। पराधीनतामें सुख नहीं है, दुःख ही है। स्वाधीन जो अपने आश्रयसे-चैतन्यके आश्रयसे प्रगट होता है, वही सुख है। वह यथार्थ सुख है।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें पहले बोलमें आया कि, यदि बाहर नहीं रुचता है तो उपयोग अन्दर पलट दे, आत्मामें रुचे ऐसा है। इसे प्रयोग पद्धतिमें कैसे रखे? शब्दमें तो सुनते हैं, पढते हैं, लगता है, रुचता बहुत है, जचता भी है, लेकिन प्रयोग पद्धतिमें अन्दर कैसे आये?
समाधानः- उपयोग पलट दे। उसका उपयोग बाहर जाता है तो पलट उपयोगको पलट दे। पलटे कैसे? उसकी रुचि होवे तो पलटे। उसको बाहरमें ऐसा लगे कि यह विभाव आकुलता है, सब दुःख है, आत्मामें सुख है, उसकी प्रतीत होवे, उसका निश्चय होवे, ज्ञान होवे तब उपयोग पलटे। उपयोग पलटना वह तो पुरुषार्थ करके पलटता है, ऐसे तो नहीं पलटता है।
मुमुक्षुः- ऐसे तो जचता है न कि बाहर नहीं रुच रहा है, फिर भी बार- बार उपयोग बाहरकी ओर ही भगता है, आत्माकी ओर (नहीं आता)।
समाधानः- अपनी कमी, अपनी भूल है। अपना पुरुषार्थ..
मुमुक्षुः- हमें अभी तक आत्माकी महिमा नहीं है क्या कि जिससे ऐसा लगता है?
समाधानः- पुरुषार्थकी कमी है इसलिये बाहर उपयोग जाता है। अपनी महिमा लगे, बाहरमें सुख नहीं लगे, बाहरमें चैन नहीं लगे, आत्माके सुखके बिना शान्ति नहीं होवे, ऐसा होवे तब उपयोग भीतरमें जाय। आत्माके बिना जिसको चैन नहीं पडता है, उसका उपयोग भीतरमें जाता है। जिसको बाहरमें चैन पड जाता है, तो उपयोग भीतरमें नहीं जाता है। बाहर चैन नहीं पडे तो उपयोग भीतरमें जाता है।
मुमुक्षुः- माताजी! गुरुदेवकी टेपमें (आता है कि) क्रमबद्धका निर्णय होते ही स्वभावका निर्णय हो जाता है।
समाधानः- सब क्रमबद्ध है तो कर्ताबुद्धि छूट जाती है। मैं किसीको करता नहीं हूँ, मैं किसीको कर नहीं सकता हूँ। स्वतःसिद्ध आत्मा अनादिअनन्त है। उसकी पर्याय