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भी स्वयं (होती) है। सब क्रमबद्ध है। स्वभावका निर्णय दृढ हो जाता है। भेदज्ञान हो जाता है, क्रमबद्धका निर्णय होता है तो। कर्ताबुद्धि छूट जाती है और स्वभावका निर्णय हो जाता है। स्वभावकी धारा प्रगट होनेमें पुरुषार्थपूर्वक होती है। जिसको आत्माका कल्याण करना है उसको, जैसा बननेवाला होता है, बनता है, ठीक है (ऐसा नहीं होता)। परन्तु जो पुरुषार्थ करता है, जिसका क्रमबद्ध अच्छा होता है उसको पुरुषार्थ ही ध्यानमें आता है। जो क्रमबद्ध होता है, पुरुषार्थपूर्वक होता है। आत्मामें पुरुषार्थ लगता है, उसका क्रमबद्ध ऐसा होता है। वह पुरुषार्थपूर्वक होता है। स्वभावका निर्णय करे तो कर्ताबुद्धि छूट जाती है। सब क्रमबद्ध है।
सम्यग्दृष्टि होता है उसको निर्णय हो गया कि सब क्रमबद्ध है। परन्तु उसकी जो पुरुषार्थकी धारा रहती है, वह ऐसा विचार नहीं करता है कि होनेवाला होता है। उसकी तो पुरुषार्थकी धारा ही रहती है। जिसको आत्माका कल्याण करना है, उसको मैं पुरुषार्थ नहीं करुँ, जैसा होनेवाला है वैसा होगा, ऐसा विचार नहीं होता। उसका क्रमबद्ध अच्छा होता है, जिसको पुरुषार्थ करना है, उसका क्रमबद्ध अच्छा होता है।
मुमुक्षुः- निर्णय भी उसीका कहलायेगा कि जिसकी सहज गति अन्दरमें होगी?
समाधानः- जिज्ञासुको ऐसा विचार नहीं आता कि निर्णय होनेवाला होता है। जिज्ञासुको तो चैन नहीं पडती। मैं निर्णय कर लूँ, मैं ऐसा कर लूँ। तो उसका क्रमबद्ध अच्छा होता है। उसको ऐसा विचार नहीं होता कि, भगवानने जैसा देखा होगा वह होगा। जो पुरुषार्थ करे उसका क्रमबद्ध अच्छा देखा है। जिज्ञासुको तो पुरुषार्थ पर दृष्टि रहती है। बाकी कर्ताबुद्धि परपदार्थकी छूट जाती है।
समाधानः- .. वाणीमें आये ऐसी बात नहीं है। बाकी जिसे आत्माकी रुचि लगी, आत्मामें ही सब भरा है, बाहर कुछ नहीं है। आत्मामें शान्ति, आत्मामें आनन्द, आत्माकी अपूर्व महिमा, आत्मा अनन्त-अनन्त ज्ञानसे भरपूर है, अगाध गंभीर गुणोंसे भरपूर है। जिसके गुणोंका पार नहीं है, ऐसा अदभूत आत्मा जगतसे भिन्न, इस विभावकी दुनियासे अलग जातका आत्मा है। विकल्प टूटकर उसकी स्वानुभूति होती है। पहले वह प्रतीतमें आता है। उसकी भेदज्ञानकी धारा प्रगट (होती है)। निर्विकल्प स्वानुभूति होनेके बाद जो उसकी भेदज्ञानकी धारा होती है वह सहज होती है। पहले तो विचारपूर्वक, निर्णयपूर्वक करता है।
मुमुक्षुः- बारंबार आता है, स्वभाव प्रगट है, प्रगट है, आप कहते हो जीव जागृत है, जागृत है...
समाधानः- प्रगट ही है, स्वयं ही है, गुप्त नहीं है। स्वयं विचार करे तो जाननेवाला स्वयं ही है। जो पर्याय होती है, जो विकल्प आवे उन सबको जाननेवाला भिन्न ही