१३४
है? ऐसी भावना भीतरमें रहती है। रटन करनेसे विकल्प हो जाता है। बादमें भावना होवे तो कोई बार रटन करे, लेकिन उसकी ऐसी सहज कोई खटक रह जाती है।
जैसे लौकिकमें कोई दुःख होता है तो भीतरमें खटक-खटक रहती है कि ऐसा क्यों हो गया? ऐसा क्यों हो गया? वैसे आत्माकी खटक रहती है तो, मुझे आत्मा कैसे मिले? मुझे आत्मा कैसे मिले? ऐसी भावना तो रहती है। जिज्ञासुको ऐसा रहता है। जन्म-मरण कैसे मिटे? ऐसी भावना रहती है।
मुमुक्षुः- हमें कैसा प्रयास करना? शास्त्रका अभ्यास चलता है...
समाधानः- सच्चा ज्ञान करे तो मार्ग मिल जाता है। शास्त्रमेंसे मार्ग मिले.... शास्त्रका अर्थ समझमें न आवे तो गुरुदेवने क्या बताया है, उसका विचार करे, किसीको पूछे इसका क्या अर्थ है? इसमेंसे कोई मार्ग मिले तो भीतरमेंसे भी मार्ग मिलनेका वह कारण बनता है। बाहरका शास्त्रका स्वाध्याय करनेसे। कुछ लोग स्वाध्याय करते रहते हैं, परन्तु भीतरमें विचार न करे तो कुछ समझमें नहीं आता, वह तो पाठकी भाँति कर लेता है। परन्तु विचार करके समझना चाहिये।
मुमुक्षुः- नहीं, लेकिन यह भी है, जैसे अपनको रुचि होती है तो फिर विचार करनेकी इच्छा भी होती है।
समाधानः- होती है, रुचि हो तो विचारनेकी इच्छा होती है।
मुमुक्षुः- विचार करनेकी फिर इच्छा भी होती है। ज्यादा पढ नहीं सकते। आगेका उतना तक तो होता है, जैसे कि, पीछले साल ज्ञान और राग अलग नहीं दिखता है। अब दो-तीन महिनेसे ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध पुस्तक पढी, बहिनश्री! वह मेरेको बहुत अच्छी लगी। उसमें मेरेको, ज्ञान अलग है, राग अलग है, ऐसा समझमें तो आता है, बादमें कैसे करना?
समाधानः- समझमें आता है, लेकिन उसका भेद करना वह अलग है। समझमें तो आ जाय कि रागका लक्षण भिन्न है, ज्ञानका लक्षण भिन्न है। ज्ञान तो भीतरमें जाननेवाला है मैं हूँ और राग भिन्न है। ऐसा समझमें आया, बुद्धिमें आया। बुद्धिमें आया लेकिन उसका भेद करना वह दूसरी बात है।
मुमुक्षुः- भेद कैसे करेंगे?
समाधानः- वह तो प्रयत्न होवे।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ-प्रयत्न करेंगे।
समाधानः- प्रयत्न करे, उसकी महिमा होवे, उसकी जिज्ञासा होवे कि मैं कैसे करुँ? लगनी लगे। ज्ञायकके बिना मुझे चैन नहीं पडती। रागमें मुझे आकुलता लगती है। यह आकुलता दुःखरूप है। सुख होवे, ज्ञायकमें शान्ति होवे, ज्ञायकको मैं कैसे