४१२ पहचानुँ? उसकी भावना जगे, उसकी जिज्ञासा, लगनी लगे तो उसका भेदज्ञान होवे। बिना लगनीके नहीं हो सकता। जबतक नहीं होवे तबतक जानना अपनी क्षति है, अपनी कमी है। कमी है, जिज्ञासा कम है, पुरुषार्थ कम है। जबतक नहीं होवे तबतक विचार करना, स्वाध्याय करना, नहीं होवे तब तक। आकुलता नहीं करना।
... बात नहीं आती, भेदज्ञानकी कोई बात नहीं आती है। मात्र क्रियाकी बात आती है कि, ऐसे करो, उपवास करो, यह करो, वह करो, ऐसा ही सब आता है।
मुमुक्षुः- ... ऐसा लगा कि अजीब-अजीब लगने लगा। पढते हैं ना तो अजीब- अजीब लगता है। मैं बोलती, यहाँके पात्र है दिगम्बर बडे रहस्यात्मक है। कभी कुछ तरीका बताये, कभी कुछ नहीं करना, नया-नया लगता। पढते वही का वही सब।
समाधानः- अन्दरसे नये-नये रहस्य निकलते जाते हैं। आचयाकी कथनीमें गहराई है। बहुत गहराई है। जीव, अजीव-अजीव, अजीव, परन्तु बीचमें जो राग होता है, वह राग चैतन्यकी पर्यायमें होता है, उसका निमित्त कर्म है। कोई अपेक्षासे चैतन्यका कहनेमें आये, कोई अपेक्षासे जडका कहनेमें आये, उसका भेदज्ञान करना। उसकी निश्चय- व्यवहारकी सन्धि करना उसमें बहुत अटपटा होता है। विचार करके बिठाना पडता है।