समाधानः- ... विकल्प सहित आनन्द होवे, वह आनन्द किसी भी प्रकारका हो, परन्तु विकल्प टूटकर आनन्द आवे, अपने आश्रयमेंसे आवे, चैतन्यमेसे उत्पन्न हुआ आनन्द हो, विकल्प टूटकर, जो विकल्पकी आकुलता है, आकुलता टूटकर अंतरमेंसे विकल्प छूटकर जो आनन्द आवे, वह आत्माके आश्रयसे आता है। कोई विकल्प खडे हो और जो आनन्द आवे, वह आनन्द कोई दूसरे प्रकारका है।
मुमुक्षुः- सच्चा आनन्द नहीं है।
समाधानः- कोई उल्लास आवे, आनन्द आवे वह अलग है। उसमें शुभभाव साथमें रहा है। इसमें तो विकल्प टूटकर स्वभावका आनन्द आवे, भेदज्ञान करता हुआ, ज्ञाताकी धाराकी उग्रता करता हुआ, उसमें विकल्प छूटकर जो आनन्द आवे वह आनन्द अलग होता है। स्वभावमेंसे प्रगट होता हुआ आनन्द है।
विकल्पसे पार होना बहुत मुश्किल, दुर्लभ है। उसका अभ्यास करते-करते होता है। पहले उसकी श्रद्धा होती है कि मैं विकल्पसे भिन्न हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी पहले श्रद्धा हो, बादमें विकल्प टूटनेका प्रयत्न बादमें होता है, अभ्यास करते-करते। किसीको होता है तो अंतर्मुहूर्तमें होता है, नहीं होता है उसे अभ्यास करते-करते होता है।
मुमुक्षुः- अभ्यासमें भी विकल्प द्वारा ही अभ्यास होता है।
समाधानः- अभ्यासमें भी विकल्प तो साथमें है। जब तक विकल्प छूटा नहीं, तब तक विकल्प तो साथमें रहा ही है। परन्तु विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है, उसकी श्रद्धा भिन्नताकी रखकर अंतरसे जो प्रयत्न हो वह अलग होता है। मेरा स्वरूप नहीं है, यह मेरा स्वरूप नहीं।
मुुमुक्षुः- निर्विकल्प आनन्दकी अनुभूति होती है वह कितनी देर टिकता है? कोई कहता है, बीजलीके चमकारे जितना रहता है। मालूम कैसे पडे? बिजलीके चमकारेकी भाँति होता हो तो मालूम नहीं पडे। ऐसा होता है?
समाधानः- ऐसे स्वयंको मालूम पडता है। उसे मालूम नहीं पडता ऐसा नहीं होता। उसे स्वयंको स्वानुभूतिमें मालूम पडता है कि यह स्वानुभव है। उसका काल अंतर्मुहूर्तका है, छोटा-बडा कैसा भी हो, अंतर्मुहूर्तका काल है।