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मुमुक्षुः- यानी एक-दो मिनिट...?
समाधानः- उसका अमुक काल है, परन्तु वह पकड सकता है। किसीको थोडा ज्यादा होता है, किसीको थोडा कम होता है, परन्तु वह पकड सके ऐसा होता है। पकड न सके ऐसा नहीं होता।
मुमुक्षुः- हाँ, नहीं तो उसका प्रयोजन क्या?
समाधानः- यदि पकड नहीं सके तो... ऐसे ही चला जाय तो स्वयं पकड नहीं सकता है।
... पुरुषार्थकी गति हो उस अनुसार होता है। और गृहस्थाश्रममें जैसा उसका पुरुषार्थ हो वैसा होता है। मुनिओंकी तो बात ही अलग है, वे तो अंतर्मुहूर्तमें क्षण-क्षणमें होती है। लेकिन गृहस्थाश्रममें जैसी उसकी पुरुषार्थकी गति हो, उसकी सहज धारा हो वैसे होता है। उसका कोई नियम नहीं होता। फिर श्रावककी दशामें उससे विशेष होता है। जिसे देशव्रत होते हैं, उसकी अंतरकी स्थिरता बढती है, उसे ज्यादा होता है। चतुर्थ गुणस्थानमें अमुक प्रकारसे होता है। परन्तु सबको पुरुषार्थकी गति एक समान हो ऐसा नहीं है। उसकी पुरुषार्थकी गतिकी जो सहज धारा हो, उस अनुसार होता है।
मुमुक्षुः- एक बार किसीको अनुभव हो गया, फिर दो-चार सालके बाद भी न हो, ऐसा बनता है?
समाधानः- ऐसा नहीं बनता। दो-चार साल निकल जाये, ऐसा नहीं बनता।
मुमुक्षुः- तो भ्रमणा ही हुयी है न? कोई ऐसा मानता हो कि मुझे सम्यग्दर्शन हो गया है, दो-चार साल तक (अनुभव) नहीं होता, ऐसा शास्त्रमें...
समाधानः- दो-चार सालकी (बात नहीं है)। .. समयमें उसे होता ही है। दो- चार वर्षका (अंतर नहीं पडता)। सबको यही करनेका है।
मुमुक्षुः- ... बहुत कम काल तो रहता है न? सम्यग्दृष्टि हो और भले...
समाधानः- एकदम गति है न? इसलिये मुनिओंकी गिनती...
मुमुक्षुः- इसलिये ऐसा है। बाकी सम्यग्दृष्टिको...
समाधानः- उसका ऐसा कोई नियम नहीं है। सम्यग्दृष्टिको पौन सेकण्ड ही रहे ऐसा नियम नहीं है। अंतर्मुहूर्तका उसका नियम है। मुनिओंको एकदम गति होती है इसलिये।
.... ज्ञानपूर्वकका ध्यान होना चाहिये। मैं यह चैतन्य हूँ, वह उसे ग्रहण होना चाहिये, स्वयंकी प्रज्ञासे कि मैं यह चैतन्य हूँ, ऐसे ग्रहण होकर बादमें उसमें एकाग्रता होती है। तो ज्ञानपूर्वकका ध्यान (होता है)। अपने स्वभावको पहचानकर ध्यान, अपना