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अस्तित्व ग्रहण करके ध्यान होना चाहिये। समझे बिनाका ध्यान करे अपना तो वह ध्यान नहीं करता है। परन्तु अपना अस्तित्व ग्रहण करके ध्यान होना चाहिये। (अपना अस्तित्व) ग्रहण होना चाहिये।
समाधानः- ... परको नहीं जानता है, ऐसा नहीं है। स्वपरप्रकाशक ज्ञान है। परका ज्ञान उसमें नहीं आता है, ऐसा नहीं है। उस शब्दका आशय ग्रहण करनेका दूसरेके हाथमें रहता है। दूसरा ऐसा ही कहे कि, जैसा अपने मानते हैं वैसा ही कहते हैं। वह तो व्यवहार है, ऐसा करके निकाल दे। परको जानना व्यवहार है, वह निश्चय है। जिस प्रकारसे अर्थ करना हो वैसे कर सकता है।
निश्चय-व्यवहारकी सन्धि ऐसी है कि परको जानता ही नहीं है ऐसा नहीं है। परके साथ एकत्वबुद्धि करके परको जानना, ऐसा कोई मुक्तिका मार्ग नहीं है। स्वयं स्वप्रकाशक पूर्वक उसमें पर आ जाता है। वस्तु स्थिति ऐसी है कि स्वको जानते हुए पर ज्ञात होता है। कोई ऐसा खीँचे कि स्वको जानता है... .. सन्धिका मेल नहीं आता है, वह... ... गुरुदेव भी कहते थे, लेकिन वजन कहाँ देना? और किस लाईन पर...
मुमुक्षुः- माताजी! थोडी और स्पष्टता षटकारक...
समाधानः- षटकारक अपनेमें है। पर्याय कोई स्वतंत्र वस्तु दुनियामें नहीं है। अखण्ड एक द्रव्य है, पर्याय द्रव्यके आश्रयसे है। फिर भी उसे स्वतंत्र कहनेमें आता है, वह कोई अपेक्षासे कहनेमें आता है। जैसे द्रव्यमेंसे अनन्त-अनन्त भाव, अनन्त पर्यायें प्रगट होती है, वैसे पर्यायमेंसे अनन्त, एक पर्यायमेंसे अनन्त पर्यायें नहीं होती। पर्याय तो एक क्षणके लिये है। उसके षटकारक कहनेमें आता है, वह सब अपेक्षासे कहनेमें आता है। षटकारक जो द्रव्यमें लागू पडते हैं, वह अलग प्रकारसे लागू पडते हैं। पर्यायमें लागू पडते हैं, वह दूसरे प्रकारसे लागू पडता है। उसकी अपेक्षा समझनी चाहिये।
पर्यायको एकदम निकाल दोगे तो पर्यायका वेदन ही नहीं रहेगा। पर्यायका वेदन होता है, पर्याय क्षणिक है, पर्यायको स्वतन्त्र माननी और पर्यायको द्रव्यके आश्रयवाली माननी, उसकी सन्धि करनी, वह सब मुक्तिके मार्गमें यथास्थित होता है। द्रव्यदृष्टि मुख्य रखकर उसमें पर्याय साथमें आती है। उस पर्यायको द्रव्यका आश्रय है, नहीं है ऐसा नहीं। पर्यायको स्वतंत्र भी कहते हैं। क्योंकि वह क्षणके लिये स्वयं उत्पन्न होती है, स्वयं नाश होती है। लेकिन उसे आश्रय द्रव्यका है। दोनोंकी सन्धि करनी चाहिये। सन्धि न करे तो स्वयं भूला पडता है। उसमें फर्क कहाँ पडता है? वजन कहाँ देना वह समझनेवाले पर आधार रखता है। बात एक ही होती है कि द्रव्यदृष्टि मुख्य रखकर उसके साथ पर्यायकी बात करते हैं। जबकि दूसरा, द्रव्यदृष्टि मुख्य करके उसमें स्वयं