Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

१३६ परिणमता है। अभेद लेने जाय तो द्रव्य परिणमता (है)।

.. अनन्त-अनन्त ... परिणमे तो भी खत्म नहीं होता ऐसे सामर्थ्यसे परिपूर्ण है, इसलिये पर्याय ऐसे ही परिणमती रहती है। पर्याय ऊपरसे होती है? द्रव्यके सामर्थ्यमें अनन्त-अनन्त शक्ति (भरी है)। चाहे जितनी पर्याय परिणमो, अनन्त काल जाय तो भी द्रव्य वैसाका वैसा है। उसमें कुछ कम नहीं होता। ऐसी शक्तिसे भरपूर सामर्थ्ययुक्त द्रव्य है, उसमेंसे पर्याय आती है। उसे द्रव्यका आश्रय है। वह क्षणिक है। परिणमनेवाली, उसमें-पर्यायमें परिणमनेकी शक्ति है। पर्याय स्वतंत्र परिणमे। उसका संप्रदान स्वतंत्र, उसका अपादान, उसका अधिकरण (स्वतंत्र)। उस अपेक्षासे पर्याय स्वतंत्र (कहा)। इसलिये उसे द्रव्यका आश्रय नहीं है, ऐसा नहीं मानना। उस अपेक्षासे है। कर्ता, कर्म, करण (आदि)। जैसे द्रव्यके षटकारक स्वतंत्र है, वैसे ही उसके (हैं), ऐसा नहीं मानना। दोनोंमें अंतर है। दूसरे द्रव्यका और इस द्रव्यका कर्ता, कर्म सब स्वतंत्र हैं, ऐसी स्वतंत्रता पर्यायमें है, ऐसा नहीं मानना। ऐसी ही स्वतंत्रता पर्यायमें नहीं है, पर्याय तो क्षणिक है। द्रव्य तो अनन्त सामर्थ्यसे भरा हुआ है। उसके षटकारक स्वतंत्र (आता है), वह अलग है।

... इसलिये उसकी स्वतंत्रता है। पर्यायमें उतना सामर्थ्य नहीं है, वह तो क्षण भरके लिये परिणमती है, दूसरे क्षणमें दूसरी पर्याय आती है। ज्ञान परिणमता ही रहे, ज्ञान खत्म नहीं होता। अनन्त काल पर्यंत आनन्द परिणमता ही रहे तो भी खत्म नहीं होता। द्रव्यके सामर्थ्यसे ... है। संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनसे भेद है। वस्तुभेद है क्या उसका? वह तो शास्त्रमें भी आता है। वस्तु पर्याय एक भिन्न द्रव्य थोडा ही है। द्रव्य नहीं है। तो फिर कितने द्रव्य हो जाय? चैतन्यद्रव्य और चैतन्यका पर्यायद्रव्य, गुणद्रव्य ऐसा हो जाय। जैसा द्रव्य स्वतंत्र है, वैसी ही जातकी पर्याय स्वतंत्र नहीं है। स्वतंत्र कही जाती है, परन्तु स्वतंत्र-स्वतंत्रमें अंतर है।

.. राजा उसका स्वामी है। उसके आश्रयमें रहनेवाले सब स्वतंत्रपने काम करते हो, परन्तु उसका मालिक तो राजा है। ऐसी स्वतंत्रता, जो काम करनेवाले होते हैं वे स्वतंत्रतासे करते हों। राजा उसे पूछे भी नहीं, कुछ नहीं, स्वतंत्ररूपसे करते हों, तो भी मालिक तो राजा ही है। राजाकी ... है। (दृष्टान्तमें) तो भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं।

(यहाँ सिद्धान्तमें तो) राजा जैसे चलता हो, वैसे ही पर्याय चलती है। उसकी दृष्टि द्रव्य पर जाय तो ऐसे ही पर्याय चलती है। स्वयं अन्दर स्वभावमें, स्वभावकी ओर जोर बढ जाय तो पर्याय ऐसे ही चलती है। विभावकी ओर जाय तो वैसे ही पर्याय चले। मूल द्रव्य पर दृष्टि देनेवाला है, वह जैसे चलता हो वैसे ही पर्यायकी डोर चले, दूसरे प्रकारसे नहीं चले। वैसे ही चले।