Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-४)

जो द्रव्य पर दृष्टि है, उसके बलमेंसे जो चलता है, उसी प्रकार पर्याय चले। दूसरे प्रकारसे चले नहीं सकती। उसे आश्रय द्रव्यका है। विभावकी ओर दृष्टि हो तो वैसे ही विभाव चले। ऐसे दृष्टि फिरे तो स्वभाव चले। उसमें यदि उसकी परिणति जोरसे वृद्धिगत हो तो वैसे चले। तो पूरा चक्र वैसे चले। एक उसकी दृष्टि फरि और लीनता फिर तो पूरा द्रव्य, सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन, पूरा चक्र वैसे चले। जिस ओर दृष्टि और परिणति, लीनता जैसे चले वैसे सब चले। यह इस ओर चले तो वह उस ओर नहीं चलता। ... पर्याय दूसरी ओर चले ऐसा नहीं होता।

.. शुद्धात्माकी शुद्धरूप पर्याय परिणमे तो स्वतंत्र परिणमे। परन्तु जैसे द्रव्यकी दृष्टि और लीनता जैसे चले वैसे वह चले। दूसरे प्रकारसे नहीं चल सकता। फिर उसे अलग- अलग करने नहीं जाना पडता कि वह भिन्न-भिन्न (चले)। एक चला, उसमें सब परिणति सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन, स्वतः अनन्त गुणका परिणमन शुद्ध होता है। भिन्न-भिन्न अनन्त पर दृष्टि करके भेद करके नहीं करना पडता कि सब पर अलग-अलग दृष्टि करके (करना पडे)। एक पर दृष्टि (देता है) इसलिये पूरा चक्र सुलटा (चलता है)। उसकी उस पर्यंतकी स्वतंत्रता होती है।

... समझाये इसलिये ऐसा लगे कि ये भिन्न कहते हैं। दूसरोंको बिठानेके लिये, दूसरे लक्षण कहकर (कहते थे)। मैं दूसरे प्रकारसे कहती हूँ। .. इस प्रकारसे कहती हूँ और वे दूसरे प्रकारसे कहते हैं। उनको ... करना होता है, मैं दृष्टिकी ओरसे कहती हूँ कि दृष्टि द्रव्यकी ओर मुडे तो सब पर्याय (इस ओर झुक जाती है)। पर्यायको द्रव्यका आश्रय है।

... देव-गुरु-शास्त्र निमित्त होते हैं, उपादान तो स्वयंको तैयार करना पडता है। पहले तो अंश प्रगट होता है, बादमें पूर्णता होती है। पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करना। बाहरसे नहीं... ज्ञायक आत्माका स्वरूप पहचाने, भेदज्ञान करे, शरीर मैं नहीं हूँ, विभावपर्याय मेरा स्वभाव नहीं है। शुभाशुभ भाव भी मेरा स्वभाव नहीं है। मैं भिन्न चैतन्यद्रव्य हूँ। ऐसी श्रद्धा-प्रतीत करके उसकी स्वानुभूति करे तो उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। आगे बढकर केवलज्ञान तो बादमें होता है।

स्वानुभूतिमें लीन होते-होते, विशेष-विशेष स्थिरता होती है तब पंचम गुणस्थान, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें मुनि अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें झुलते हैं, बादमें श्रेणि लगाकर केवलज्ञान होता है। शुरूआत तो ऐसे होती है। उसकी जिज्ञासा करना, महिमा करना, नहीं होवे तब तक उसका अभ्यास करना, ये सब करना।

मुमुक्षुः- माताजी! षटखण्डागममें आता है न कि मतिज्ञान केवलज्ञानको बुलाता है।

समाधानः- मतिज्ञान बुलाता है। मति-श्रुत (ज्ञान) जिसको प्रगट होता है तो