१३६ या भगवान द्वारा या देव-गुरु-शास्त्र द्वारा कहो या श्रुतज्ञान द्वारा कहो। दोनों साथमें होते हैं।
श्रुतज्ञान ओरसे बात करनेमें आती है तो श्रुतज्ञानकी ओरसे कहते हैं। देव-गुरुकी ओरसे बात करे तो देव-गुरुकी ओरसे (बात आती है)। दोनों साथमें होते हैं। भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको जाने उसमें श्रुतज्ञान आ जाता है। श्रुतज्ञान द्वारा आत्माको जाने उसमें देव-गुरु भी आ जाते हैं। दोनोंमें ऐसा सम्बन्ध आ जाता है।
... कोई कहनेकी बात नहीं है। स्वानुभूति तो अलौकिक है, आत्माकी वस्तु है। आत्मा है, आत्माकी स्वानुभूति (होती है)। विभाव तो अनादि कालमें बहुत वेदनमें आया है, स्वानुभूति तो वेदनमें नहीं आयी है। सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं हुआ है, वह तो अलौकिक है। विकल्प टूटकर निराकुल आत्माका आनन्द, अनन्त गुणसे भरा आत्मा, वह तो कोई अलौकिक वस्तु है। स्वानुभूतिमें आती है।
मुमुक्षुः- माताजी! सम्यग्दर्शनकी पात्रता क्या होनी चाहिये? समाधानः- पात्रतामें तो ऐसी भावना होवे कि मैं आत्माको कैसे प्रगट करुँ? मैं कैसे आत्माको पहचानूँ? विभावमें चैन न पडे, बाहरमें कहीं चैन (न पडे), बाहर उपयोग जाय उसमें चैन नहीं पडे, विभावमें कहीं चैन न पडे। सुख और शान्ति मेरे भीतरमेंसे कैसे आ जाय? ऐसी बहुत भावना (हो)। मुझे आत्मा कैसे प्रगट हो, ऐसी जिज्ञासा, चैतन्य ज्ञायककी महिमा, मैं ज्ञायकको कैसे पीछानूँ, उसकी महिमा, देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा, बारंबार उसका अभ्यास, तत्त्व विचार, शास्त्र अभ्यास, उसमें मैं आत्माको कैसे पीछानूँ? प्रयोजनभूत आत्मा। ज्यादा जान लूँ (ऐसा नहीं), परन्तु मैं प्रयोजनभूत आत्मा ज्ञायक उसको कैसे पीछानूँ? उसकी बहुत भावना, जिज्ञासा, लगनी रहती है।