समाधानः- ... पहलेसे .. हो रहा है, अभी भी हो रहा है। गुरुदेव विराजते थे, सब मंगलता छा गयी है। इसलिये वह सब (हो रहा है)। एक साधनाभूमि है न, इसलिये सबको स्फुरता रहता है।
मुमुक्षुः- ... यह निश्चय है या यह श्रद्धागुण है या सुखगुण है, स्वानुभूतिके समय ऐसा कुछ ख्यालमें...
समाधानः- उसे अन्दर भासता है।
मुमुक्षुः- कोई गुणकी परिणति...?
समाधानः- अनन्त गुणकी परिणति उसे ख्यालमें आती है।
मुमुक्षुः- ... ऐसा कुछ भिन्न-भिन्न भासित होता है?
समाधानः- सब गुण तो एक द्रव्यमें ही हैं। परन्तु उसमें अनन्त-अनन्त भाव भरे हैं, अनन्त गुण भरे हैं। उसका भावभासन होता है। केवलज्ञानी प्रत्यक्ष जानते हैं, परन्तु स्वानुभूतिमें भी उसका भावका भासन होता है।
मुमुक्षुः- वह तो स्वानुभूतिके समय ही ख्यालमें आता है।
समाधानः- हाँ, स्वानुभूतिमें ख्यालमें आता है, उसके वेदनमें आता है।
मुमुक्षुः- दर्शनगुणसे देखे ..
समाधानः- नेत्र रहित... वह तो जड है, आँख तो जड है। आँख कुछ देखती नहीं। अन्दर देखनेवाला चैतन्य है। आँख तो निमित्त है। ये जो बाहरका दिखता है, वह आँख नहीं देखती, आँख तो जड है, आँख नहीं देखती है। देखनेवाला अन्दर है। उसकी क्षयोपशम शक्तिके कारण वह सीधा नहीं देख सकता। आँखके कारण ही है। आँख तो जड ही है। चैतन्य चला जाता है तो आँख कहाँ देखती है? इसलिये देखनेवाला तो स्वयं ही है, चैतन्य ही है।
अब, जो स्वयं ही देखनेवाला है, उसे आलम्बनकी जरूरत नहीं पडती। उसे आलम्बन तो क्षयोपशमज्ञान है इसलिये जरूरत पडती है। चैतन्य स्वयं देखनेवाला है। स्वानुभूतिमें उसका देखनेका गुण चला नहीं जाता है। स्वयं देखनेवाला, स्वयं स्वयंको देखता है। उस वक्त बाहर उपयोग नहीं है, परन्तु स्वयं स्वयंको देखता है, स्वयं स्वयंको वेदता