Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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१०अमृत वाणी (भाग-४)

आये उससे मैं भिन्न हूँ। ऐसा क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें उसकी भेदज्ञानकी धारा, ऐसी ज्ञानकी धारा उसे सहज रहती है। फिर उसे धोखना नहीं पडता। ऐसी श्रद्धा और ज्ञान, अमुक प्रकारकी भेदज्ञान उसे वर्तती ही रहती है। खाते-पीते, कार्य करते हुए, कभी भी निद्रामें, स्वप्नमें भेदज्ञानकी धारा-मैं भिन्न चैनत्य हूँ, मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ, भिन्न हूँ, ऐसी धारा उसे चलती ही रहती है। बाहर उपयोग जाय तो भी वैसी धारा उसे चलती ही है। सहज भेदज्ञानकी धारा चलती है।

मुमुक्षुः- स्वपरप्रकाशक जब कहते हैं, तब उसका समय भिन्न होता है?

समाधानः- नहीं, समय भिन्न नहीं है। एक समयमें स्वयं स्वयंको प्रकाशता है और स्वयं (परको भी प्रकाशता है)। केवलज्ञान होने पर स्वयं स्वयंको जानते हुए, दूसरा उसमें स्वयं ज्ञात हो जाता है। दो समय अलग नहीं है कि परको जाने तब स्वयंको न जाने और स्वयंको जाने तब परको न जाने। ऐसा नहीं है, समय भिन्न नहीं है। और बाहर उपयोग हो तो भी उसे ज्ञायककी धारा-ज्ञायककी परिणति (चलती है)। छद्मस्थको एक समयमें एक उपयोग होता है। परन्तु ज्ञायककी परिणतिकी धारा उसे वैसे ही चलती है। परिणति तो सहज स्व-रूप रहती है और पर-रूप होता नहीं। स्वयं स्वयंको जानता हुआ दूसरेको जानता है। एकमेक नहीं होता, वह छद्मस्थ भी एकमेक नहीं होता। भेदज्ञानकी धाराकी परिणति रहती है। स्वयं स्वयंको वेदता हुआ स्वयंको जानता हुआ अन्यको जानता है। वेदता हुआ अर्थात अनुभूतिकी बात अलग है, ये तो अमुक अंशमें शान्ति, समाधिरूप स्वयं परिणमता हुआ अन्यको जानता है। स्वपरप्रकाशक इस प्रकार है।

मुमुक्षुः- अन्यको जानते समय भी उसका विकल्प दूसरेकी ओर जाता है?

समाधानः- विकल्प जाय तो वह विकल्प और मैं भिन्न हैं। मैं जाननेवाला भिन्न हूँ, उस जातकी उसकी परिणति हटती ही नहीं, हटती ही नहीं।

मुमुक्षुः- वह छद्मस्थमें, फिर आगे?

समाधानः- आगे जाय तब तो उसे निर्विकल्प स्वानुभूति होती है तब विकल्प टूट जाता है। फिर उसकी स्वानुभूति जैसे-जैसे बढती जाती है, ऐसे भेदज्ञानकी धारा तो वैसे ही रहती है कि मैं भिन्न हूँ, ज्ञायक हूँ। ज्ञायकपना उसका बढता जाता है। विकल्पदशा टूटती जाती है और ज्ञायककी धारा बढती जाती है। और निर्विकल्प स्वानुभूति बढती जाती है। स्वानुभूति बढती जाती है। ज्ञायकका तीखापन बढते जाता है इसलिये मुनिपना आता है। फिर क्षण-क्षणमें, क्षण-भणमें आत्माकी अनुभूति होती है। विकल्प कम हो जाते हैं। स्वानुभूति होते-होते केवलज्ञान हो जाता है इसलिये विकल्पका नाश हो जाता है।