गुरुदेवने बताया है। ज्ञायकको पहचान। ज्ञायकता उसका लक्षण है। वह गुण उसका असाधारण है। आनन्दगुण बादमें स्वानुभूतिमें प्रगट होता है, परन्तु ज्ञायकता-ज्ञानलक्षण तो उसका पहचाना जा सके ऐसा है। जाननेवाला सदा जीवंत जागता ही है, उसे पहचाना जा सके ऐसा है। लक्षणसे पहचानमें आये। प्रज्ञाछैनीसे भिन्न करना। उसे लक्षणसे पहचान लेना कि यह लक्षण मेरा और यह लक्षण विभावका है। यह शीतलता पानीकी है और मलिनता कीचडकी है। वैसे अन्दर शीतल स्वभाव आत्मा चैतन्य शांतसमुद्र ज्ञायकतासे भरा हुआ मैं हूँ और यह विभाव है। (दोनों) भिन्न है। सब विकल्प आकुलतामय है। ऊँचेमें ऊँचे भाव हो, बीचमें वह शुभभाव आये तो वह आकुलतासे भरे हैं। निराकुल और शान्तस्वरूप आनन्दस्वरूप आत्मा है। जाननस्वरूपको पहचान लेना।
मुमुक्षुः- आकुलता नहीं लगती है।
समाधानः- विचार करे तो लगे। उसमें सुख लगा है इसलिये आकुलता नहीं लगती है। वह आकुलता है। जिसमें सुख नहीं है उसमें सुख माना इसलिये आकुलता नहीं लगती है। आकुलता ही भरी है। जिसमें उसकी कर्ताबुद्धि (चलती है कि) मैं यह करुँ, वह करुँ, ऐसा करुँ, वैसा करुँ। अंतरमें सूक्ष्म होकर देखे तो आकुलता ही है। आकुलताके सिवा कुछ नहीं है। स्थूल दृष्टिसे उसे सुखबुद्धि लगती है। सूक्ष्म होकर देखे तो सब आकुलता ही है। विभावकी संकल्प-विकल्पकी श्रृंखला आकुलतासे ही भरी है। अकेला निराकुल लक्षण ज्ञानलक्षण वह शान्त स्वभावसे भरा है। यह सब आकुलता लक्षण है। (आकुलता) नहीं लगनेका कारण स्वयंने उसमें सुखबुद्धि मानी है। अनादिकी भ्रान्ति हो गयी है। सूक्ष्मतासे देखे तो दोनों भिन्न ही है। आकुलता ही है।
.. ज्ञायकता, जो समतास्वरूप, रम्यस्वरूप, ज्ञायकतास्वरूप। ... उससे वापस हठता है कि यह सब भिन्न है और मैं भिन्न हूँ। गुरुदेवने वही कहा है और वही करना है। चैतन्यमें ही सब मंगलता भरी है और वही मंगलस्वरूप आत्मा है।
मुमुक्षुः- ... परिणति नहीं होती है। उसमें कहाँ अटकना होता होगा?
समाधानः- पुरुषार्थकी क्षति है इसिलये। निर्णयमें आता है परन्तु उतना पुरुषार्थ करता नहीं है, इसलिये पुरुषार्थकी क्षतिके कारण वह अनुभवमें नहीं आता है। निर्णय तो बुद्धिसे करता है, परंतु यथार्थ जो अंतरमें स्वभावको पहचानकर निर्णय करके उसमें पुरुषार्थ करके तदगत परिणति करनी, उसमें पुरुषार्थकी क्षति है।
प्रमादके कारण अटक रहा है। स्वयंका प्रमाद है। अंतरमें प्रमाद तोडकर पुरुषार्थ करे कि यह कुछ नहीं चाहिये, ये सब दुःखसे भरा है। ऐसे अंतर रुचिकी तीव्रता, उतनी लगन लगे, उतना पुरुषार्थका जोर हो तो अंतरमेंसे चैतन्यकी स्वानुभूति प्रगट हुए बिना नहीं रहती। आत्मा पूरा आनन्दसे भरा है और उसका कोई अलग ही स्वभाव