१३७ है, अलौकिक अदभुत स्वरूप है, परन्तु स्वयंके पुरुषार्थकी क्षति है। अपनी आलसके कारण वह दिखाई नहीं देता। अपनी आलसके कारण स्वयंने इतना काल व्यतीत किया है।
गुरुदेव कहते थे न, "निज नयननी आळसे रे, निरख्या नहीं हरिने जरी'। अपने नयनकी आलसके कारण स्वयं अपने चैतन्यको पहचानता नहीं है, देखता नहीं है, उसे स्वानुभवमें लेता नहीं। पुरुषार्थ करे तो अपने पास ही है, कहीं दूर नहीं है, कहीं बाहर लेने जाना पडे ऐसा नहीं है या कहीं दूर है (ऐसा नहीं है), अपने पास ही स्वयं बसा है। स्वयं ही है, इसलिये स्वयं दृष्टि बदले, दिशा बदले तो पूरा चैतन्यका परिणमन चैतन्यमय हो जाता है। उसकी पूरी दुनिया अलग हो जाती है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- गुरुदेवने कहा है न देव-गुरु.. अंतर आत्मामें प्रभावना करनी है।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- आपको सुप्रभातकी नवीनता प्रगट करनेका गुरुदेवने कहा है।
मुमुक्षुः- १०२वां वर्ष चल रहा है। कितना आयुष्य हो वह तो भगवानको मालूम, परन्तु धारणा अनुसार १०६ है। गुरुदेवने कहा वह बात सच्ची है...।
समाधानः- लेकिन करनेका तो वही है न। प्रभात अर्थात एक ही करनेका है।
मुमुक्षुः- वह तो आपकी बात बराबर है कि आत्म सन्मुख होकर अपना कार्य कर सकते हैं। यह बात तो कबूल है। परन्तु कैसे सन्मुख होना? घरके काममेंसे, दूसरेमेंसे ... हो तब हो न?
समाधानः- कामकाज कुछ नहीं, अंतरकी परिणति अपने पुरुषार्थसे प्रगट होती है। काम कोई रोकता नहीं है।
मुमुक्षुः- ... जितना करे, उतना अपने पुरुषार्थसे करता है। वह बात तो सौ प्रतिशत सच्ची है। उसमें कोई शंका नहीं है।
मुमुक्षुः- इसलिये चार बजे बंकिमको कहा कि मुझे जाना ही है।
समाधानः- स्वानुभूति प्रगट करे तो होता है। परन्तु अन्दरसे स्वयंको करना है।
मुमुक्षुः- लेकिन पहले हमने अभेदज्ञान किया है ऐसा साबित हो, बादमें भेदज्ञान होगा न?
समाधानः- अभेद दृष्टि करके भेद, दोनों साथमें होते हैं।
मुमुक्षुः- उसके पहले अभेदज्ञान ही किया है, इतना दो दिखाई देना चाहिये न।
समाधानः- एकत्वबुद्धि एकत्व और विभक्त। अपना एकत्व और अन्यसे विभक्त।