१३८ विकल्प टूटकर स्वानुभूति हो। वह उसका उपाय है। चैतन्य पर ऐसी एकत्वबुद्धि और परसे विभक्त। अर्थात परकी ओरसे विभक्त भेदज्ञान और चैतन्यकी ओर एकत्व (हो) कि मैं चैतन्य हूँ। इस प्रकार अपने अस्तित्वको अभेदरूपसे ग्रहण करता है।
मुमुक्षुः- उदयगत जो विस्मृत हो जाता है, बाहरके जो भी उदय आये उसमें जुड जाते हैं, छूट जाता है, अभ्यास नहीं है न।
समाधानः- हाँ, उदय है उसे वह जानता है। उदय कर्म नहीं करवाता है, अपनी अस्थिरताके कारण होता है। वह जानता है कि मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है। लेकिन वह विभावस्वभाव है, मेरा स्वभाव नहीं है।
मुमुक्षुः- इस प्रकार भिन्न करता जाय?
समाधानः- हाँ, उसे भिन्न करता है कि यह पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, उसे भिन्न करके मेरा स्वभाव ज्ञायक है। इस प्रकार भिन्न करता है। वही भवका अभाव होनेका उपाय है और वही सुखका उपाय है।
मुमुक्षुः- सतत यही करनेका है?
समाधानः- हाँ, वही करनेका है, करना यही है। चैतन्यकी ओर एकत्वबुद्धि और परसे विभक्त, यह करना है।
मुमुक्षुः- अनादिकालसे जो कर्ताबुद्धि है वह उसमें दौड जाती है। उसमेंसे वापस मुडना है।
समाधानः- कर्ताबुद्धि (है कि) मैं परको कर सकता हूँ, मैं परको रख सकता हूँ, ऐसी जो परके साथ कर्तृत्वबुद्धि है। पर तो स्वयं परिणमता है, उसे-पर पदार्थको स्वयं कर नहीं सकता। विभावपर्याय अपनी अस्थिरतासे होती है। होता है चैतन्यकी पर्यायमें परन्तु वह अपना स्वभाव नहीं है, इस प्रकार उसे जानता है। उसका ज्ञायक होता है।
... तेरे आत्मामें सब भरा है। तेरे आत्माका अस्तित्व ग्रहण कर। उसमें ज्ञान, आनन्द और सुख सब भरा है। इसलिये तू (उसमें) जा। उसमें तुझे सुहाय ऐसा है। वह तेरे रहनेका स्थान है, वह तेरे सुखका धाम है, उसमें तू जा। तो तुझे उसमेंसे सुख प्रगट होगा। रहनेका स्थान, ठिकाना हो तो वह चैतन्य है।
मुमुक्षुः- बाहरमें कहीं अच्छा न लगता हो तो ही इसमें अच्छा लगे ऐसा क्यों?
समाधानः- बाहरमें अच्छा न लगता हो तो ही अच्छा लगे, नहीं तो कहाँ- से? बाहरकी रुचि जिसे लगी है, उसे आत्माकी रुचि नहीं है। जिसे आत्माकी रुचि लगे उसे बाहरकी रुचि टूट जाती है। बाहरमें जिसे रुचि और तन्मयता है, उसे आत्माकी लगन नहीं है, वह आत्माकी ओर जा नहीं सकता। अनादि कालसे स्वयं बाहरमें तन्मय