होकर रहा है। इसलिये आत्माकी लगन नहीं लगायी है, उसमें अनन्त काल व्यतीत हो गया है। आत्माकी रुचि लगे तो ही आत्मामें जा सके ऐसा है।
बहुत लोग कहते हैं, कहीं अच्छा नहीं लगता, अच्छा नहीं लगता। परन्तु तेरे आत्माका अस्तित्व ग्रहण कर। वह तेरे रहनेका स्थान है। उसमें तुझे अच्छा लगे ऐसा है, वह सुखका धाम है। इसलिये तू उसे ग्रहण कर और उस जातका पुरुषार्थ कर। तो उसमेंसे ही सब सुख प्रगट होगा। परन्तु बाहर रुचे नहीं तो ही अन्दर जा सके ऐसा है। बाहर जिसे रुचे उसके लिये तो बाहर संसार खडा ही है।
मुमुक्षुः- अन्दरमें सुख देखा नहीं है तो कैसे विश्वास करे?
समाधानः- सुखको देखा नहीं है, परन्तु बाहर कुछ रुचता नहीं और सुखको इच्छता है, सुखकी इच्छा है। उसे बाहर कहीं चैन नहीं है, रुचि नहीं है तो सुखका एक पदार्थ जगतमें है, उसे तू तेरे विचारसे ग्रहण कर। तत्त्वको ग्रहण कर, उसीमें सुख है। जो देव-गुरु और शास्त्र बता रहे हैं, मुनिओंने प्रगट किया है। अनन्त तीर्थंकरोंने सुखका धाम प्रगट किया है और सब महापुरुषोंने बताया है। इसलिये तू विचार कर तो आत्मामें ही सुख है। तुझे दिखाई नहीं देता है। जो तीर्थंकरोंने महापुरुषोंने, गुरुने जो कहा है, तू तत्त्वका विचार करके अन्दर देख तो तुझे भी दिखाई देगा। तो तेरा आत्मा ही अन्दरसे जवाब देगा।
तू तत्त्वका स्वभाव अन्दर देख। जाननेवाला अन्दर विराजता है, ये कुछ नहीं जानता है। जाननेवाला विराजता है, उसमें सुख है। तू विचार कर तो तुझे प्रतीत हुए बिना नहीं रहेगा। उसी मार्ग पर अनन्त तीर्थंकर मोक्षमें गये हैं और उन्होंने वह मार्ग बताया है। उसका तू विश्वास लाकर अंतरमें विचार कर तो तुझे विश्वास आये बिना नहीं रहेगा।
मुमुक्षुः- राग और द्वेषके परिणाममें अटक जाते हैं। कुछ समझमें नहीं आता। ऐसी उलझन होती है...
समाधानः- स्वयंकी रुचि नहीं है। रुचि मन्द है इसलिये अटक जाता है। पुरुषार्थ अधिक करना। अधिक पुरुषार्थ करना, रुचि ज्यादा बढानी। पुरुषार्थ मन्द हो जाय तो बारंबार उसका अभ्यास करना। बाहर कहीं पर रुचि लगे तो उसका प्रयत्न करता ही रहता है। बाहरकी रुचि हो तो बाहरकी महेनत अथवा कोई भी कामकी जिम्मेदारी ली हो तो करता ही रहता है, उसके पीछे लग जाता है। तो इसकी रुचि लगे तो उसके पीछे लगकर बारंबार प्रयत्न करे तो होता है। किये बिना नहीं होता।
मुमुक्षुः- उतावली करनेसे नहीं होता।
समाधानः- उतावली करनेसे नहीं होता है, स्वभावको पहचानकर होता है, धैर्यसे