वाणीका निमित्त प्रबल (है)। उपादान स्वयं तैयार न करे तो गुरु अथवा देव क्या करे? प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। स्वयं पुरुषार्थ करे, स्वयं निमित्तको ग्रहण करे कि गुरु क्या कहते हैं? भवगान क्या कहते हैं? स्वयंको ग्रहण करना चाहिये।
समाधानः- .. आत्मामें कुछ नवीनता प्रगट करनी है। अनन्त कालसे बाहरका सब करता रहा है, अंतरका कुछ नहीं किया है। अंतर दृष्टि करके अंतरमें कुछ नवीनता प्रगट करे। भेदज्ञान करके दृष्टि स्व सन्मुख करके कुछ नवीन पर्याय प्रगट हो, भावना (करे)। ज्ञाता पर दृष्टि (करे)। ज्ञाताको पहचानकर उसका भेदज्ञान करके स्वानुभूति प्रगट करे उसकी भावना, अभ्यास करे। बाकी शरीर तो शरीरका काम करता रहे। आत्मा स्वतंत्र है। आत्माको जो करना है (उसमें) स्वयं स्वतंत्र पुरुषार्थ करके कर सकता है। गुरुदेवने बहुत कहा है।
दिशा अपनी ओर स्वसन्मुख करके अपनेमेंसे ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी पर्यायें प्रगट करनी, वही करना है। वही नवीनता है। जीवनकी नवीनता वही है कि अंतरमेंसे कुछ नवीनता प्रगट हो। और वही मार्ग है। सुखका मार्ग, आनन्दका मार्ग वही है। बडे- बडे राजाओंने भी वही मार्ग ग्रहण किया है। वही करने जैसा है। चक्रवर्ती आदि सबने वही मार्ग ग्रहण किया है। यथार्थ वही करना है।
(देव-गुरु-शास्त्रको) हृदयमें रखना। आत्माकी अंतर दृष्टि करके आत्माका स्वरूप प्रगट करना। उसके लिये तत्त्व विचार, शास्त्र अभ्यास आदि करना। आत्मा स्वयं स्वतंत्र है। चैतन्य आत्मा स्वतंत्र है इसलिये आत्माका पुरुषार्थ आत्मामें करना।
... के कारण कि मैं शरीर, विभाव मैं, संकल्प-विकल्प आदि मानों मैं हूँ, ऐसी एकत्वबुद्धि हो गयी है। वह एकत्वबुद्धि तोडकर अंतर दृष्टि करे तो आत्मा पहचाना जाय ऐसा है। गुरुदेवने वह मार्ग बताया है और वह मार्ग कोई अपूर्व है। आचार्य भगवंत, गुरुदेव आदि सब वही कहते हैं कि आत्मा अंतरमें है। अंतरमें सुख है, अंतरमें आनन्द है, बाहर कहीं नहीं है। बाहर जीव व्यर्थ प्रयत्न करता है। अनन्त कालसे अनन्त जन्म-मरण करता है। मानों बाहरसे कहींसे मिलेगा। ज्यादासे ज्यादा बाहरसे थोडी क्रिया कर ले अथवा कुछ कर ले तो मानों धर्म हो गया, ऐसा मानता है। परन्तु धर्म तो अंतरमें रहा है। शुभभाव करे तो पुण्य बन्ध होता है, देवलोक मिलता है। परन्तु भवका अभाव तो अंतर आत्मा-शुद्धात्माको पहचाने तो ही होता है। इसलिये अंतर आत्माकी दृष्टि करके पहचाननेके लिये तत्त्व विचार, शास्त्र स्वाध्याय, गुरुका उपदेश (श्रवण करना), वह सब जीवनमें करने जैसा है। उसका विचार करके आत्मा पहचाने तो भवका अभाव होता है। अंतर आत्मा विराजता है और कोई अपूर्व तत्त्व है। वह ज्ञान, आनन्दसे भरा है। उसे पहचानने जैसा है। और वह स्वानुभूतिमें प्रगट होता है।