समाधानः- .. भेदज्ञान करना, महिमा करनी। ज्ञायकमें सब भरपूर भरा है, उसको पहचानना। बाहरमें कुछ नहीं है, भीतरमें सब कुछ है। ज्ञायक अनन्त गुणसे भरपूर अनन्त- अनन्त खजाना, अनन्त शक्तियाँ ज्ञायकमें भरी है। उस पर दृष्टि करनेसे, ज्ञान करनेसे, परिणतिकी लीनता करना वही करना है। वही जीवनका कर्तव्य है। शास्त्र अभ्यास, तत्त्व विचार ये सब करके अपने आत्माको पीछानना। ध्येय वह रखना, वही करनेका। आचार्यदेवकी क्या बात! गुरुदेवने उपकार किया है, अपूर्व मार्ग बताया। सब शास्त्रके रहस्य गुरुदेवने खुल्ले किये हैं। पारिणामिकभाव आदि सबका स्वरूप गुरुदेवने बताया है। अनादिअनन्त आत्मा पारिणामिकभाव स्वरूप है, उसमें ज्ञायकता भरी है। ज्ञायकता भी पारिणामिकभावस्वरूप (है)।
अनादिअनन्त .. स्वरूप शुद्धात्मा, पारिणामिकभावस्वरूप, वही लक्ष्यमें लेने योग्य, वह पूजनीय और महिमायोग्य स्वरूप है। जिसने आत्माके स्वरूपको प्रगट किया है, वह देव-गुरु-शास्त्र भी पूजनीय है। और शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, भीतरमें ज्ञायक भगवान परमपारिणामिकभावस्वरूप पूजनीय है, उसको पहचानना।
मुमुक्षुः- माताजी! जिस जाननक्रियामें आत्मा जाननेमें आती है, वह जाननक्रिया किसके आधारसे प्रगट होती है?
समाधानः- वह जाननक्रिया आत्माके-ज्ञायक-ज्ञाताके-आधारसे जाननक्रि/या होती है, कोई परके आधारसे नहीं होती है। जो ज्ञायक ज्ञाता है, इस ज्ञातामेंसे ज्ञानकी क्रिया प्रगट होती है। जाननक्रिया। अनन्त कालसे कर्तृत्वबुद्धि, परका मैं कर्ता हूँ, पर मेरा कार्य है, विभावका कर्ता हूँ। स्वभावका कर्ता होवे, ज्ञायकता प्रगट होवे तो उसमें जानन क्रिया प्रगट होती है। मैं जाननेवाला आत्मा हूँ। उसकी जाननक्रिया, जाननक्रियारूप परिणति आत्मा ज्ञायकके आधारसे प्रगट होती है। कर्तृत्वबुद्धि... अस्थिरता अल्प रहती है, उसकी कर्तृत्वबुद्धि स्वामीत्वबुद्धि छूट जाती है और ज्ञायकता प्रगट होती है। ज्ञाताधारा जाननक्रिया प्रगट होती है। स्वरूप परिणति, स्वरूपकी स्वानुभूति प्रगट होती है। उसमें जाननक्रिया निरंतर चलती है।
मुमुक्षुः- स्वानुभूतिकी मुख्यता तो सुखकी...?