हो जाता है। चैतन्यगोला भिन्न पडकर चैतन्य स्वयं स्वयंको अनुभवता है। ये अनुभव जो वेदन है, विभावका वेदन है वह छूट जाता है और चैतन्यका वेदन अंतरमेंसे प्रगट होता है। एकदम निराला हो जाता है।
.... मैं चैतन्य ही हूँ। चैतन्यके आनन्द स्वरूपको वेदता है। उपयोग बाहर आये तब यह शरीर भिन्न और मैं ज्ञायक भिन्न हूँ, ऐसी भिन्नताकी परिणति वर्तती है। अंतरमें गया तो शरीर कहाँ है उसका भी ख्याल नहीं है। मैं चैतन्य ही हूँ। विकल्प भी छूट जाते हैं। विकल्पकी ओर उपयोग नहीं है। अकेले चैतन्यका वेदन है। अकेली आनन्दकी धारा आनन्दका स्वरूप प्रगट होता है। आनन्दादि अनन्त गुणोंकी पर्यायें प्रगट होती हैं।
मुमुक्षुः- लोगोंको मरते हुए देखते हैं तो हमें ऐसा नहीं लगता है कि अपना भी कभी भी ऐसा मरण होनेवाला है, तो क्या एकत्वबुद्धिका दोष होगा?
समाधानः- एकत्वबुद्धि है। शरीरके साथ एकत्वबुद्धि है। जन्म-मरण तो चलते ही रहते हैं। जिसने शरीर धारण किया, इसलिये देह और आत्मा भिन्न पड ही जाते हैं। एकत्वबुद्धि, उतना शरीरके साथ एकत्वबुद्धिका राग है। चैतन्य तो शाश्वत है। चैतन्यमें जन्म-मरण लागू नहीं पडते। वह तो शाश्वत है। जहाँ जाय वहाँ शाश्वत है। एक देह छूटकर दूसरा देह धारण करता है। आत्मा तो शाश्वत है। परन्तु एकत्वबुद्धिके कारण उसे ख्याल नहीं आता है।
मुुमुक्षुः- पूर्व भवकी लेन-देनके कारण दूसरे भवमें सब व्यक्ति इकट्ठे होते हैं, क्या यह बात सच है?
समाधानः- किसीको पूर्व भवका कोई सम्बन्ध हो और लेन-देन हो इसलिये भी मिलते हैं, बाकी पूर्व भवमें कहीं मिले नहीं हो और कुछ परिणामोंका और ऐसे कर्मके संयोगका ऐसा मेल बैठ जाय और मिल जाते हैं। कभी कोई कहाँ-से आया हो, कोई कहाँ-से आया हो और मिल जाते हैं। कोई किस गतिमेंसे, कोई किस गतिमेंसे आकर मिल जाते हैं। परिणाम और कर्मके उदयका ऐसा मेल खा जाय और मिल जाते हैं। और किसीका पूर्व सम्बन्ध हो, पूर्वमें साथमें हो और मिल जाय, ऐसा भी बनता है।
समाधानः-.. सब स्थूल दृष्टिमें क्रियामें पडे थे। कहाँसे गुरुदेव सबको ऊपर ले आये। कोई देव-देवीको नहीं मानते हों, परन्तु क्रियामें तो पडे ही थे। उपवास करें तो धर्म होगा, ऐसी सब मान्यता। ... स्थानकवासीमें तो सब ऐसा था। ज्ञायकको पहचाननेका मार्ग कहाँ था? कौन जानता था? अंतर दृष्टि करनी और मोक्ष अंतरमें आंशिकरूपसे होता है, वह मोक्ष बादमें होता है। और यह मोक्ष अंतरमें होता है, यह बात कहाँ थी?