Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 145.

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ट्रेक-
ट्रेक-१४५ (audio) (View topics)

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ट्रेक-१४५

मुमुक्षुः- बार-बार जो है, इस जीवको विषय और कषायोंकी तरफ क्यों ध्यान बट जाता है? क्यों जा रहा है वहाँ?

समाधानः- अनन्त कालमें वह परिणति, अभ्यास ऐसा हो गया है। अनन्त कालसे ऐसा अभ्यास हो रहा है। उस ओरकी रुचि हो रही है, उस ओर सुख लग रहा है। आत्माके सुखकी ओर ध्यान नहीं है। सुख मेरे आत्मामें है, मैं सुखका धाम हूँ, उस ओर उतना पूरा दृढ विश्वास नहीं है और परमें सुखबुद्धि हो रही है। बाहरमें जाता है न, इसलिये सुखबुद्धि हो रही है। आत्मामें सुख है, आत्मा ज्ञानस्वरूप है, ज्ञायक है, जाननेवाला है, आत्मामेंसे ज्ञान प्रगटता है, आत्मामें आनन्द प्रगटता है, आत्मा कोई अदभुत वस्तु है, ऐसी जो दृढ प्रतीति उसको भीतरमेंसे होनी चाहिये वह भीतरमेंसे दृढ प्रतीति नहीं है। प्रतीति बुद्धिसे तो करता है, परन्तुु भीतरमें चैतन्यद्रव्यको पहचानकरके भीतरमेंसे जो दृढ प्रतीति नहीं है, इसलिये बार-बार बाहर जाता है और अनादि कालसे ऐसा परमें जानेका अभ्यास है, पुरुषार्थ मन्द है और रुचि बाहरमें लग रही है। बाहरमें यदि सुख नहीं लगे, रुचि नहीं लगे, चैन नहीं पडे।

यह तो आकुलतारूप है, दुःखका कारण है, दुःख स्वरूप है, ऐसा यदि विश्वास होवे कि मेरे आत्मामें सुख है, सुखका कारण, सुखका स्वरूप आत्मामें है, ऐसी दृढ प्रतीति भीतरमेंसे आये तो ऊधरसे वापस मुडे और भीतरमें जाय। परन्तु दृढ प्रतीति जो अंतरमेंसे आनी चाहिये ऐसी अंतरमें प्रतीति नहीं है और बाहरमें रुचि लगी है, इसलिये बार-बार वहाँ जाता है। इसलिये उसकी दृढ प्रतीति भीतरमेंसे पुरुषार्थ करके करनी चाहिये। वह नहीं होवे तब तक बार-बार वही करना, नहीं होवे तबतक। शान्तिपूर्वक धैर्यसे करना चाहिये। ऐसे आकुलता करनेसे नहीं होता, परन्तु शान्तिसे, जिज्ञासासे, भीतरमें लगन लगनी चाहिये कि भीतमेंसे सुख कैसे प्रगट हो? ऐसी लगनपूर्वक शान्तिसे, धैर्यसे उसके स्वभावको पहचानकरके करना चाहिये।

मुमुक्षुः- ... अभी तक जो है सुख आत्मामें नहीं माना है और बाहरसे बुद्धिगत द्वारा तो मान लिया। लेकिन अंतरसे जो है विश्वास नहीं है। अंतरमें सुखका अनुभव नहीं होता। इस कारणसे बार-बार जो है जिन सुखोंको अनादि कालसे इसने भोग