रखा है, उसकी तरफ उसका ध्यान बटता रहता है। और उसके कारण ही उसमें सुख मानता है। यही (कारण है)?
समाधानः- हाँ, इस कारणसे। सुखकी दृढ प्रतीति नहीं है भ भीतरमें इसलिये बाहर जाता है। और उसको दुःख लगे कि ये तो दुःखस्वरूप है, आकुलता लगे, शुभ और अशुभ दोनों भाव आकुलतारूप है और शुद्धात्मा है वह सुखरूप है। शुभभाव है वह पुण्यबन्धका कारण है तो भी उस शुभभावमें भी आकुलता है, आत्माका स्वरूप तो नहीं है। जो सिद्ध भगवानका स्वरूप (है), सिद्ध भगवानमें कोई शुभ या अशुभभाव नहीं है, ऐसे आत्मामें कोई इसका स्वभाव नहीं है। शुभभावमें भी आकुलता है। इन दोनों भावसे मैं भिन्न शुद्धात्मा निर्विकल्प तत्त्व हूँ, ऐसी दृढ प्रतीति भीतरमेंसे आनी चाहिये तो परिणति स्वकी ओर जाय और परसे हटे। उससे विरक्ति होवे, उसमें शान्ति नहीं लगे, आत्मामें शान्ति, सुख लगे तो स्वभावमें जाय। ऐसी दृढ प्रतीति करनी चाहिये।
मुमुक्षुः- दृढ प्रतीति कम है।
समाधानः- प्रतीति कम है, बारंबार अभ्यास नहीं है, पुरुषार्थ कम है इसलिये।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ भी नहीं है, दृढ प्रतीति भी नहीं है। बहुत सुन्दर, अति सुन्दर।
समाधानः- बारंबार मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये। ज्ञायकमें अनन्त गुण, आनन्द सब ज्ञायक स्वभावमें है, ऐसी महिमा आनी चाहिये। फिर क्षण- क्षण भेदज्ञान करे। ज्ञायकमें एकत्वबुद्धि करे, मैं परसे विभक्त (हूँ)। क्षण-क्षणमें जो विकल्प आता है, वह मैं नहीं हूँ। मैं तो चैतन्यतत्त्व हूँ, यह मैं नहीं हूँ, मैं तो चैतन्य हूँ। मैं परपदार्थ, वह तत्त्व मैं नहीं हूँ, मैं तो चैतन्य पदार्थ हूँ। ऐसे बारंबार भेदज्ञानकी परिणति करनी चाहिये। स्व ज्ञायकमें एकत्वबुद्धि और परसे भेदज्ञान करना चाहिये। ऐसी भेदज्ञानकी परिणति प्रगट होवे तब भीतरमेंसे स्वानुभूतिका मार्ग हो सकता है। भेदज्ञान प्रगट करे और ज्ञायककी प्रतीति करे, भेदज्ञान करे तो हो सकता है।
मुमुक्षुः- ज्ञायककी प्रतीति अंतरसे..
समाधानः- अंतरसे होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- शब्दोंका, अक्षरोंका...
समाधानः- नहीं, शब्दोंसे नहीं, भीतरसे (होनी चाहिये)।
मुमुक्षुः- भावोंसे ऐसा आवे, ऐसी स्थिति भावोंके अन्दर आ जावे तो काम बने।
समाधानः- हाँ, तो काम बने। भावमें (आना चाहिये)।
मुमुक्षुः- अभी तो बहुत दूर है। सत्य स्वीकार करनेमें जो ... अपन तो ठीक मार्ग पर आये हैं। क्या आनन्दका अनुभव हुआ! आजका प्रसंग बडा ठीक लगा, मंगलकारी