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समाधानः- तो मन भी लगे। परमार्थका पंथ एक ही होता है।
मुमुक्षुः- एक ही है, वह चैतन्यका।
समाधानः- चैतन्यका। उसकी रुचि, उसका ज्ञान, उसकी श्रद्धा, उसमें लीनता, बस।
मुमुक्षुः- क्योंकि मैं जो हूँ, मन्दिर जाता हूँ तो मिनट लगती है। ... मैं रोज हूँ। लेकिन मैं दो घण्टे नहीं बैठता। दो मिनटमें भी अगर हम कोशिष करते हैं कि किसी तरहसे मन जो है चलायमान न हो, तो वह उतनी देर भी स्थिर नहीं हो पाता।
समाधानः- जिनेन्द्र भगवानने सब कुछ प्रगट कर दिया, भगवान तो आत्मामें लीन हो गये। भगवान आत्माकी स्वानुभूतिमें लीन हैं। तो मेरा भी आत्मा ऐसा है। मैं चेतन हूँ, ऐसा चेतनका ध्यान करे तो भी हो। उसकी महिमा होनी चाहिये, उसका पुरुषार्थ होना चाहिये।
मुमुक्षुः- इतना समझमें आता है। इसके बाद भी कमी है हम लोगोंमे।
समाधानः- .. अपना अस्तित्व ज्ञायकका ग्रहण करे, उसका बारंबार अभ्यास करे कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। क्षण-क्षणमें धोखनेरूप अलग है, परन्तु अंतरमेंसे करे तो यथार्थ होता है। धोखनेरूप उसका निर्णय करे वह अलग बात है। परन्तु अंतरमेंसे मैं ज्ञायक हूँ, यह मैं नहीं हूँ। अपना अस्तित्व ग्रहण करे।
मुमुक्षुः- अंतरमेंसे इसलिये निर्विकल्पतासे?
समाधानः- नहीं, निर्विकल्प तो बादमें होता है, पहले अभ्यास होता है। निर्विकल्प तो उसे विकल्प टूटकर स्वानुभूति होती है। वह तो स्वानुभूतिरूप है। वह तो अभ्यास करे उसका फल है। उसका फल आता है। स्वानुभूति विकल्प टूटकर (होती है)। ये तो उसे विकल्प आने पर भी, विकल्प सो मैं नहीं हूँ, ऐसी प्रतीति, ऐसा ज्ञान और परिणति अंतरमें ऐसा अभ्यास करे। भले गहराईसे नहीं हो, परन्तु गहराईसे, यथार्थ गहराईसे करे तो-तो उसका फल यथार्थ आता है। बारंबार मैं ज्ञायक हूँ, अंतर स्वभाव पहिचानकर करे। जिसे होता है उसे स्वानुभूति अंतर्मुहूर्तमें होती है। जिसे न हो, वह बारंबार अभ्यास करे। बारंबार छाछका मंथन करनेसे उसमेंसे मक्खन निकलता है। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, (ऐसा करे तो) मक्खन ऊपर आये। वैसे निराला ज्ञायक प्रगट हो, स्वयंको अनादिसे विभावका अभ्यास है, अपना अभ्यास करे तो प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- उपयोगमें उपयोग, आता है।
समाधानः- उपयोगमें उपयोग, क्रोधमें क्रोध। भेदज्ञान करे कि मैं चैतन्यरूप हूँ, यह मैं नहीं हूँ। स्वमें एकत्व और परसे विभक्त। अपनेमें एकत्वबुद्धि करे, परसे विभक्तबुद्धि