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मुमुक्षुः- लक्ष्य तो द्रव्यका और वेदन पर्यायका।
समाधानः- हाँ, वेदन पर्यायका। लक्ष्य द्रव्यका, वेदन पर्यायका।
मुमुक्षुः- पर्यायमें तो जैसे कषायसे भेदज्ञान हो, तब एक कषायके अभाव जितना स्वानुभूतिके कालमें वेदन होता है न? प्रथममें तो।
समाधानः- कषायका अभाव होकर जो...
मुमुक्षुः- अनन्तानुबन्धीके अभावका।
समाधानः- अनन्तानुबन्धीके अभावका...। पहले तो वह भेदज्ञान करता है कि मैं यह नहीं हूँ। वह तो भेदज्ञान है। विकल्प टूटकर जो आता है, वह तो उसके चैतन्यमेंसे (आता है), वह तो उसमेंसे आता है। भेदज्ञान करे तो अमुक अंशमें उसे शान्ति लगती है। आनन्द तो, सविकल्पमें उसे आनन्द नहीं है, परन्तु शान्ति और समाधि जैसा लगता है। बाकी विकल्प टूटकर तो आनन्द उछलता है, वह अलग है। वह सविकल्पमें नहीं होता है, वह निर्विकल्पमें ही होता है।
मुमुक्षुः- वह आनन्द कैसा?
समाधानः- कैसा वह कोई कह सकता है? घी कैसा है? घीका स्वाद कैसा है? चीनी कैसी है? मीठी। तो कैसा मीठा, वह बोलनेकी बात नहीं है।
मुमुक्षुः- दृष्टान्तके रूपमें? समाधानः- दृष्टान्त... वह तो अनुपम है, उसे किसीकी उपमा नहीं लागू पडती।