समाधानः- एक ही मन्त्र गुरुदेवने दिया है, ज्ञायक आत्माको पहचान। स्वमें एकत्वबुद्धि, परसे विभक्त हो जा। तो वही स्वानुभूतिका मार्ग है।
समाधानः- .. पीछे पडे तो हुए बिना रहे नहीं। स्वयं ही है, अन्य कोई थोडा ही है। परन्तु पहले उसका कारण प्रगट करे। अभी तो विभावकी एकत्वबुद्धि खडी है। स्वमें एकत्वबुद्धि, परसे विभक्त-(भिन्नता) करे तो उसका मार्ग हो। वह बुद्धि-एकत्वबुद्धि तो खडी ही है। विभावकी एकत्वबुद्धि। स्वयं स्वयंमें एकत्व करे, (विभावसे) विभक्त करे तो विकल्प टूटनेका प्रसंग आये। अभी तो एकत्वबुद्धि है। एकत्वबुद्धि है उसमें विकल्प कैसे टूटेगा?
बहुत लोग ध्यान करके विकल्प.. विकल्प.. विकल्प.. छोडने जैसा है (ऐसा कहते हैं), परन्तु कैसे छूटेंगे? विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि खडी है। इसलिये होते हैं। ... (आत्माका) स्वरूप तो चैतन्य तो ज्ञायक स्वभाव-जाननेका स्वभाव है, जाननेवाला है। अनन्त-अनन्त शक्तिओंसे भरा हुआ। जिस शक्तिका कहीं अंत नहीं है, ऐसी शक्तिका नाश नहीं होता। अनन्त गुणोंसे भरपूर अदभुत तत्त्व है। जो ज्ञानस्वभाव अनन्त-अनन्त है, जिसका अंत नहीं आता। पूर्ण लोकालोकको जाने तो भी वह तो अनन्त-अनन्ततासे भरा हुआ अनन्त लोकालोक हो तो जाने, ऐसी उसकी ज्ञानशक्ति है।
वैसी उसकी आनन्दशक्ति है। अनन्त काल तक परिणमता रहे तो भी उसका आनन्द कम नहीं होता। ऐसी अनन्त-अनन्त शक्तिओंसे भरा हुआ आत्मा है। ऐसे अनन्त गुण- अनन्त शक्तिओंसे भरा ऐसा चैतन्यतत्त्व है। उसकी महिमा और उसकी अदभुतता कोई अलग प्रकारकी है। उसकी महिमा आये, उसकी रुचि हो तो जीवनमें वह कर्तव्य है। बाकी ये बाहरका तो सब परद्रव्य है। यह शरीर तो परद्रव्य है, विभाव स्वभाव आत्माका नहीं है। वह तो पुरुषार्थकी मन्दताके कारण वह विभावमें जुडता रहता है और भ्रान्तिसे यह सब मेरा है, ऐसा मानता है। उसके साथ एकत्वबुद्धि कर रहा है।
चैतन्य स्वभावमें स्वयं स्वयंमें एकत्वबुद्धि करे और परसे विभक्त-उसका भेदज्ञान करे और मैं चैतन्यतत्त्व ज्ञायक हूँ, इस तरह स्वयंमें एकत्वबुद्धि करके परसे क्षण-क्षणमें भेदज्ञान करे वही जीवनका कर्तव्य है। भेदज्ञान करके ज्ञायकका बारंबार-बारंबार उसीका प्रयत्न करके, उसीका अभ्यास करके वह प्रगट करने जैसा है।
विकल्पकी जाल आकुलतारूप है। ये विभाव स्वभाव आकुलतारूप है, सुख स्वरूप नहीं है। सुखका धाम, आनन्दका धाम तो आत्मा है। इसलिये बारंबार वह कैसे प्रगट हो? विकल्प टूटकर निर्विकल्प दशा, स्वानुभूति कैसे प्रगट हो? वह प्रगट करने जैसा है। वही जीवनका कर्तव्य है। उसके लिये तत्त्व विचार, स्वाध्याय, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, चैतन्यकी महिमा आदि सब इस ज्ञायकतत्त्वको प्रगट करनेके लिये करना है।