१४६ सत्यार्थ वह है। विकल्प टूटकर स्वानुभूति हो और स्वानुभूतिका अंश प्रगट हो वही मुक्तिका मार्ग है। स्वानुभूतिकी दशा बढते-बढते पूर्णता प्राप्त होती है। अतः वही जीवनका कर्तव्य है। द्रव्य पर दृष्टि करके वही करने जैसा है।
मुमुक्षुः- द्रव्य पर दृष्टि, ऐसा आपने कहा, अर्थात द्रव्यकी जो अनुपम महिमा आपने बतायी, ऐसा मैं हूँ, ऐसा निर्णय करके उस ओर स्वयंका लक्ष्य करना, उसे दृष्टि कहते हैं? या वस्तु जैसी है वैसी जानकर श्रद्धा करनी, उसे दृष्टि कहते हैं?
समाधानः- प्रथम उसे पहचान लेना कि चैतन्यतत्त्व यह है, ऐसा महिमावंत है। ऐसे पहचानकर उस पर दृष्टि करनी। उस दृष्टिमें कोई भेद नहीं पडता। अपना अस्तित्व ग्रहण करता है कि यह चैतन्य है सो मैं हूँ। उसे स्वभावमेंसे ग्रहण करे। एक बुद्धिसे निर्णय करे वह अलग बात है। बाकी अंतर दृष्टि करके उसे बराबर पहचाने, उस पर दृष्टि करे। उसकी दृष्टि कहो या प्रतीत कहो, जो भी कहो सब एक है। दृष्टि, प्रतीत। उसके साथ ज्ञान यथार्थ (होता है कि), यह चैतन्य मैं हूँ। उसके साथ परिणति भी उस ओर (जाती है कि) वह क्षण-क्षणमें भेदज्ञान करे। वह भेदज्ञान पहलेसे नहीं होता है, उसका अभ्यास करे तो होता है।
प्रथम तो यथार्थ स्वानुभूतिके बाद जो यथार्थ ज्ञायककी धारा प्रगट हो, वह अलग होती है। पहले तो वह मात्र अभ्यास करता है कि मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, यह मैं नहीं। ऐसा अभ्यास (करता है)। यथार्थ ज्ञायककी धारा और कर्ताबुद्धि टूटकर जो ज्ञाताधारा प्रगट हो वह स्वानुभूति होनेके बाद यथार्थरूपसे होती है, सहजरूपसे होती है। उसके पहले तो वह अभ्यास करे, परपदार्थकी कर्ताबुद्धि छोडे कि मैं परपदार्थका कर नहीं सकता, मैं चैतन्य ज्ञायक-ज्ञाता हूँ। ऐसे पहले तो अभ्यास करे। बादमें यथार्थ होता है और सहजरूपसे बादमें होता है।
मुमुक्षुः- प्रयत्नपूर्वक स्वयं परपदार्थसे भिन्न है, मैं ज्ञान और आनन्द हूँ। ऐसे निर्णय करके स्वरूपकी ओर झुकता है, विकल्पके द्वारा और जब उसका उस ओर जोर बढ जाय, तब विकल्प टूटता है?
समाधानः- हाँ, जोर बढे तो ही। तो ही विकल्प टूटता है। मात्र मन्द-मन्द हो उसमें नहीं टूटते। यथार्थपने उसका जोर, द्रव्यदृष्टिका जोर बढे तो विकल्प टूटे।
मुमुक्षुः- और आपके जो वचन निकले हैं, उन पर गुरुदेवने सब स्पष्टीकरण किया है और आपके मुखसे वाणी सुनकर भी मुझे बहुत आनन्द हुआ है। और वास्तवमें ... बहुत संतोष होता है कि महाभाग्यशाली हैं कि भगवती माता आप प्रत्यक्ष हमारे सामने मौजूद हों, आप दर्शन देते हों। गुरुदेवने आपकी पहचान नहीं करवायी होती तो ख्यालमें भी नहीं आता, आपको पहचान नहीं सकते।