समाधानः- सत्यार्थ यही है। मुक्तिका मार्ग गुरुदेवने यही दर्शाया है। अंतरमें वह कोई अलग तत्त्व है, सुखका धाम वह है, ज्ञानका धाम वह है, आनन्दका धाम वह है, कोई अदभुत तत्त्व है। उसकी महिमा लाकर वही करने जैसा है।
मुमुक्षुः- अधिक महिमा कैसे आये?
समाधानः- वह स्वयं करे तो होता है। परपदार्थकी महिमा टूट जाय और स्वभावकी महिमा आये कि वास्तवमें स्वभाव कोई अलग चीज है। ज्ञायक-ज्ञानस्वभव कोई अलग ही है, चैतन्य कोई अलग ही है और यह सब तुच्छ है। विभाव स्वभाव आदरणीय नहीं है। वह कोई आत्माको सुखरूप नहीं है, आकुलतारूप है, विपरीतरूप है, अपना स्वभाव नहीं है। यह स्वभाव सो मेरा नहीं है, मेरा स्वभाव कोई अलग ही है। ऐसा निर्णय हो तो उसकी महिमा आये। (चैतन्यकी) रुचि हो तो महिमा भी उसीमें समाविष्ट है। रुचिके साथ महिमा समाविष्ट है।
मुमुक्षुः- रुचि और महिमा...?
समाधानः- हाँ, दोनों एक ही है। रुचि, महिमा, उसकी लगन। परपदार्थकी तुच्छता भासित हो तो अपनी अपूर्वता भासित हो।
मुमुक्षुः- बारंबर यह बात सुनने पर भी उस ओर मुडनेके लिये जीव अधिक पुरुषार्थ क्यों नहीं कर सकता है?
समाधानः- अनादिसे अभ्यास परपदार्थकी ओर है, रुचि उसमें जुडी है। जितनी तीव्र रुचि अपनी ओर चाहिये उतनी करता नहीं है, इसलिये पुरुषार्थ नहीं होता है। परपदार्थकी ओर, विभावकी ओर अटक रहा है। विभावमें उसका पुरुषार्थ जुड रहा है। इसलिये अपनी ओर मन्दता रहती है। अपनी ओरकी उग्रता हो कि यह कुछ नहीं चाहिये, मुझे एक आत्मा ही चाहिये, ऐसी उग्रता हो तो पुरुषार्थ अपनी ओर मुडे।
मुमुक्षुः- अपने दोषसे-अपनी भूलसे ही दुःखी होता है।
समाधानः- अपनी भूलसे स्वयं दुःखी होता है। निर्मल स्वभाव आत्मा है। जैसे पानी निर्मल है, वैसा स्वयं स्फटिक जैसा निर्मल है। परन्तु भ्रान्तिके कारण मैं मलिन हो रहा हूँ, ऐसी उसे भ्रान्ति हो गयी है। उसकी पर्यायमें मात्र उसे अशुद्धता होती है। स्वयं पलटे तो हो सके ऐसा है। परन्तु स्वयंकी मन्दताके कारण अटक रहा है।
मुमुक्षुः- निज शुद्ध स्वरूपका जब अन्दरसे स्वीकार हो, तब पर्यायमें शुद्धता हो।
समाधानः- तब होती है। शुद्धात्माको पहचाने, बराबर उसकी प्रतीत हो, उस ओर परिणति हो तो शुद्ध परिणति हो। अशुद्ध परिणति गौण हो। पूर्णता तो बादमें होती है, परन्तु पहले अंश प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- अतीन्द्रिय आनन्दका अनुभव है वह जगतकी कोई वस्तुके साथ दर्शा